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________________ अज्ञान के उपाश्रय में : (497) ड्यूक का वनरक्षक था, और तब मुझे ख्याल आया, "ऐसे व्यक्ति के सामने मैं वृक्ष की पहचान बता रहा था। लेकिन आज मैं सोचता हूं, कि उस वृद्ध ने मेरा बड़ा उपकार किया है, और मैं जब कभी दूसरे व्यक्तियों को सम्मति या सूचनायें देने लगता हूँ, तो मुझे उसका बरबस स्मरण हो आता है। ___मैंने पुस्तकें नहीं पढ़ी हैं, ज्ञान-विज्ञान मैं जानता नहीं हं, विभिन्न भाषायें भी मैं नहीं जानता, और न मै बहुत से कार्य ही कर सकता हूं। यदि ये सभी बातें व्यक्ति में सम्भव हो सकें, तो यह महान आश्चर्य की बात होगी। लेकिन मैं इस अज्ञ-स्थिति से अप्रसन्न नहीं हूं, अपितु इसके विपरीत इस बृहत् और अविकसित ज्ञान-सम्पत्ति के विषय में सोचते-सोचते बड़े आनन्द का अनुभव करता हूं। इस स्थिति में मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे मुझे एक महाद्वीप का उत्तराधिकार मिला हो, लेकिन मैंने अभी तक उस द्वीप के एक अल्पतम कोने को ही देख और जान पाया हो, बाकी पूरे द्वीप मैं इस प्रकार घूमता रहता हूं जैसे कोई बालक आश्चर्यजनक भूमि में घूम रहा हो। कुछ समय बाद मैं सभी चीजें जान जाऊंगा, सभी साधन विकसित कर लूंगा, सारे रहस्यों का उद्घाटन कर लूंगा। पर मेरे हृदय से पूछिये तो, मैं जानता हूं कि मैं यह सब कुछ न करूंगा। मै जानता हूं, जब काम करने की घड़ी आती है, तो मैं उसी छोटे स्थान पर पुनः खोदने लगता हूं। फिर भी, जिन कामों को हम भविष्य में कर भी नहीं सकेंगे, उनके बारे में स्वप्न लेना भी आनन्ददायक है। और फिर, क्या हम लोग अविभक्त मस्तिष्क (ईश्वर) के उतने ही भाग के अधिकारी नहीं हैं, जितना अंश उस अल्प भूमि को देख और जान सकें, जो चारों ओर से अज्ञात आश्चर्य भूमि से घिरी हुई है ? अनन्त वस्तुओं के ज्ञान की अपेक्षा, आज का सबसे बड़ा विद्वान् भी अज्ञ है। ज्ञान-राशि स्वयं इतनी विस्तृत है, कि वह हमारे लिये पूर्णतया बुद्धिगम्य नहीं है। जगत् में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें हमसे भी कम ज्ञान प्राप्त है, जो अनुभव के विशाल क्षेत्र में अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता की पिटारी से कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाये हैं। यह विचार कभी-कभी संतोषप्रद और सहानुभूतिमय प्रतीत होता है। यह विचार जहां एक ओर मानव की अतृप्त कामनाओं के वृहत् आकाश में उड़ने से रोकता है, वहीं दूसरी ओर उसकी दुःखद पदावनति की भावना का भी निवारण करता है। ज्ञान-राशि व्यक्तिगत नहीं, सर्व-संग्रहीत है। किसी भी व्यक्ति को यह पूर्ण राशि उपलब्ध नहीं हो सकती। इसके विपरीत, हममें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनके पास इस राशि का शून्यांश भी नहीं है। यदि आज मैं शहरों की गलियों में घूमने जाऊं तो मेरी इच्छा होती है कि मैं ऐसे ही व्यक्तियों से मिलूं, जो मेरे मस्तिष्क में पाई जाने वाली कमियों को किसी न किसी अंश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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