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________________ अज्ञान के उपाश्रय में : (495) "उदर को वक्षस्थल से पृथक् करने वाली क्या है ?" शिक्षक ने विद्यार्थी से पूछा । "शरीर - चित्र पट जहां (नीचा भाग) आप बेंत रखते हैं, ठीक उसकी उत्तर दिशा में', विद्यार्थी ने उत्तर दिया । उक्त विद्यार्थी के इस उत्तर का मैं उपहास कर सकता हूं। पर मेरी स्थिति इस विद्यार्थी से अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि जिस प्रकार वह विद्यार्थी मेरे उपहास का पात्र बना है, उसी प्रकार मैं भी शरीर विषयक अज्ञान के लिये एक चिकित्साशास्त्रवेत्ता युवक विद्यार्थी के लिये, इससे भी अधिक उपहास का पात्र बन सकता हूं। इसी प्रकार, जब शरीर तत्त्व के विश्लेषणों पर यह ज्ञात होता है कि यह शरीर मात्र रहस्यात्मक अनन्त परमाणु संघात - पिण्ड ही है, तो परमाणु - विज्ञान सम्बन्धी प्रश्न पर चिकित्साशास्त्राध्येता एवं संपूर्ण चिकित्साशास्त्र ही उतना ही अज्ञानी और उपहासास्पद प्रतीत होगा जितना शरीर के विषय में उक्त विद्यार्थी था । अब मैं जीवन की घटनाओं पर आता हूं। मैं जहां भी अपनी आंख उठाकर देखता हूं, वहीं मुझे श्री कारलाइल (19 वीं सदी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक) के निम्न वाक्यों की सत्यता सिद्ध होती प्रतीत होती है : "अज्ञान का समुद्र अत्यन्त विस्तृत और अथाह है, जिस पर हम अस्थायी श्रास - प्रयासों के समान तैर रहे हैं ।" मैं दक्षिण आकाश में टिमटिमाते हुए मृगशिरा नक्षत्र को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता हूं, एवं इस विस्मयकारी दृश्य की विशालता का अनुभव करता हूं। लेकिन यदि मै स्वयं से यह पूछें - मैं इनके विषय में क्या जानता हूं ?" तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं है । कहना तो यहाँ तक चाहिये कि बड़े-बड़े ज्योतिर्विदों का ज्ञान भी उस समुद्र के किनारे तक ही पहुँच पाया है। इनके विज्ञान से ये सब उपग्रह परे हैं, मेरे मस्तिष्क की तरह ज्योतिर्विदों का मस्तिष्क भी संसाररूपी पेचीदी पहेली के सम्बन्ध में जानने के लिए विलोड़ित है, जिसे न तो यही कहा जा सकता है कि यह निरन्त है, और न यही कि यह सान्त है एवं जिसकी सीमायें हैं, वह भी हमारी विचार - शक्ति से परे की चीज है, और यदि नहीं है, तो यह भी हमारी विचारशक्ति से अगम्य है, अर्थात् "जिसकी ससीमता और निःसीमता हमारी ज्ञानशक्ति से अगम्य है" । ग्रीष्म ऋतु में पुष्पों के पुष्पित होने पर मैं उनके नाम सीख लेता हूं, पर मैं जानता हूं कि मुझे अगले साल भी ऐसा ही करना पड़ेगा। लेकिन उनके जीवन रहस्य के विषय में, उनकी आश्चर्यजनक उत्पत्ति एवं हवा और पृथ्वी को जीवन और सौन्दर्य में परिवर्तित करने के विषय में मेरी जानकारी उतनी ही उपहासास्पद है, जितनी एक ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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