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________________ अध्याय - 15 पर्यावरण और आहार संयम इस सदी के उत्तरार्ध से पर्यावरण प्रदूषण और मनुष्य की चर्चा महत्त्वपूर्ण बन गई है। इस हेतु विश्वस्तरीय अनुसन्धान हो रहे हैं और कार्यकारी योजनायें भी बन रही हैं क्योंकि इससे हमारा आहार-विहार यहां तक कि हमारा भावी अस्तित्व भी प्रभावित होता है। इसीलिए वैज्ञानिक और शासन इस दिशा में प्रयत्नशील हैं कि यह प्रदूषण प्राणियों के अहित की सीमा पार न कर जाये एवं जनता इस विषय में जागरूक बनकर उनकी योजनाओं में सक्रिय सहयोग करे। इसी दृष्टि से पिछले अर्धशतक से पर्यावरण विज्ञान हमारे अध्ययन की एक महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में विकसित हुआ है और अब तो यह विषय हमारे स्कूली शिक्षण का भी अंग बन गया है। वस्तुतः, 'पर्यावरण' शब्द 'परि' चारों ओर और 'आवरण' (घेरा)- दो शब्दों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है हमारे चारों ओर विद्यमान दृश्य-अदृश्य, सूक्ष्म-स्थूल तथा सजीव-निर्जीव पदार्थों का प्राकृतिक घेरा जो सामान्य अवस्था में सन्तुलित रहता है। यह घेरा (आवरण) चार प्रकार का होता है : 1. भौतिक आवरण : जल, वायु, वर्षा, अग्नि, तापमान, प्रकाश, आर्द्रता, भूतल एवं भूतलीय परिवर्तन, सूर्य-चन्द्रादि ग्रह, ध्वनि और कर्म परमाणु आदि। 2. रासायनिक आवरण : भौतिक आवरण के निर्मायक तत्त्व, भूतल के रासायनिक तत्त्व और पदार्थ, प्रकृति में अविरल चलने वाले जल, 'ऑक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा गंधक के चक्र।। 3. सजीव पदार्थों का आवरण: सूक्ष्म एवं स्थूल : सभी प्रकार के जीव और जीवाणु, पशु-पक्षी, वन्य प्राणी, मनुष्य आदि। 4. अन्तर्भावात्मक या आन्तरिक आवरण : मानसिक दशायें और प्रवृत्तियां। _इन कोटियों के आधार पर हम कह सकते हैं कि हमारे चारों और प्रकृति में पाये जाने वाले सभी बाहरी घटक और हमारे अन्दर पाये जाने वाले सभी मनोभावात्मक घटक सभी का समुच्चय पर्यावरण कहलाता है। सामान्यतः पर्यावरण शास्त्री बाह्य घटकों को ही महत्त्व देते हैं, फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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