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________________ पर्यावरण और आहार संयम : (475) मनोभावात्मक घटकों को उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता। पर्यावरण के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र बिन्दु मानव प्राणी है, अतः इस शब्द से उसके चारों ओर पाये जाने वाले उपरोक्त घटक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। फिर भी, यह तो स्पष्ट ही है कि मानव स्वयं पर्यावरण का एक घटक है पर उसने अपने हाथ, पैर, आंख, बुद्धि सर्वभक्षिता एवं भ्रमणशीलता के कारण सभी घटकों में प्रमुखता पाई है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि पर्यावरण के प्रत्येक घटक की स्वतन्त्र सत्ता, अस्मिता एवं उपयोगिता है। पर्यावरण के उपरोक्त घटक एक-दूसरे से अंतःसम्बन्धित हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। उदाहरणार्थजलवायु शरीर की आकृति, रंग, प्रजनन चक्र एवं व्यवहार को प्रभावित करती है, रासायनिक पर्यावरण हमारे आहार, जीवन एवं कियाविधि को प्रभावित करता है। सजीव पदार्थों की उपस्थिति हमारे स्वास्थ्य, सुरक्षा, एवं उपयोगिता को बनाये रखने में सहायक होती है। हमारे मनोभाव हमारे आहार-विहार एवं व्यवहार को प्रभावित करते हैं। पर्यावरण-विज्ञान में इन सभी घटकों के अन्तःसम्बन्धों एवं अन्योन्य प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ___ मानव के समुचित भौतिक, भावात्मक और आध्यात्मिक विकास के लिये ये अंतःसम्बन्ध और अन्योन्य प्रभाव मैत्रीपूर्ण एवं सन्तुलित रहने चाहिये। इनमें किसी भी प्रकार का असन्तुलन हमारे जीवन पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है। जलवायु का प्रदूषण इस असन्तुलन का प्रमुख कारण होता है। पर्यावरण में यह क्षमता होती है कि वह कुछ सीमा तक इस असन्तुलन के प्रभाव को नगण्य बनाये रहे। पर उस सीमा से आगे वह जीवन में कुरूपता ला सकता है। पर्यावरण विज्ञान में इस असन्तुलन के कारणों तथा उसके निराकरण की विधियों के अन्वेषण के साथ उसके अर्थशास्त्र पर भी विचार किया जाता है। बाह्य पर्यावरण : भौतिक आवरण पर्यावरण, आहार (खाद्य पदार्थ) एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति का परस्पर में घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुतः हमारे आहार के सभी घटक- धान्य, तैल, दालें, खनिज पदार्थ, जल आदि-हमें पर्यावरण से ही प्राप्त होते हैं और होते रहेंगे। फलतः प्रकृति या पर्यावरण उत्पादक है और मानव तथा अन्य प्राणी उपभोक्ता हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार पहले मानव शिकारी था, पर बाद में उसने कृषि एवं पशुपालन की कला विकसित की और अन्य जीव-जन्तुओं से आगे निकल गया। अपने विकास के प्रथम चरण में जलथल पर्याप्त थे और मानव की जनसंख्या सीमित थी। यह सचमुच अचरजकारी निरीक्षण है कि विश्व में जहां अन्य प्राणियों एवं जीवाणुओं की जनसंख्या प्रायः स्थिर रही है, वहीं मानव की जनसंख्या निरन्तर ज्यामितीय दर से वर्धमान रही है। जनसंख्या वृद्धि के द्विगुणन और वर्षों से सम्बन्धित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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