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________________ जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार : (465) जीव की संरचना के कोशिकीय संघटन के आधार पर वनस्पतियों का प्रत्येक और अनन्तकायिक रूप में वर्गीकरण अब एक ऐतिहासिक तथ्य है। दोनों प्रकार के वनस्पति बहुकोशिकीय पाये गये हैं और प्रत्येक जीव अपने विकास के समय नित नयी सजीव कोशिकायें बनाता और नष्ट करता रहता है। यही नहीं, शास्त्रीय परिभाषानुसार गन्ना आदि की अनन्तकायिकता स्वयं आपतित है जिसके प्रत्येक पर्व से पृथक्-पृथक् इक्षु वृक्ष उत्पन्न होते हैं। इसकी तो भक्ष्यता ही प्रचलित है। इसी प्रकार बहुबीजक भी अनन्तकायिक ही माने जाएंगे। इनकी अलग कोटि क्यों बनाई गई, यह अन्वेषणीय है। शरीर के स्वास्थ्य की अनुकूलता एवं विशिष्ट आहार-घटकों की पूर्ति के आधार पर भक्ष्याभक्ष्यता को निरूपित करने में अनेक लोग इनकी गंध के कारण इन्हें नहीं खाते। तामसिकता उत्पन्न करने की बात कहकर लोक-रुचि-विरुद्धता के कारण भी लोग इन्हें नहीं खाते। यह सम्भव है कि इन्हें आहार का चावल-दाल के समान बहुमात्रिक घटक मानने पर यह सत्य हो, पर अल्पमात्रिक घटक (मसाले व चटनी के समान) के रूप में इन्हें लेने पर यह दुर्गुण उत्पन्न नहीं करता और रोग-प्रतिकार क्षमता बढ़ती है। आचार्य जैन ने इस सम्बन्ध में धर्म एवं स्वास्थ्य की मान्यताओं के इस अन्योन्य-विरोध पर किंचित विचार किया है। फलतः इस कोटि के पदार्थों को अभक्ष्यता की कोटि में सम्मिलित करने में कोई आचारगत पवित्रता का उद्धेश्य प्राप्त होता हो, ऐसा नहीं लगता। इनका उपयोग न करने वाले लोगों में भी वे सभी गुणावगुण पाये जाते हैं जो अन्यों में होते हैं। कभी-कभी तो उनके अवगुणों की तीक्ष्णता परेशान कर देती है। अभी एक प्रमुख मासिक" के अनुसार एक डाक्टर से शाकाहार के सम्बन्ध में प्रचलित कुछ लोकोक्तियों की वैधता की बात पूछी गई, तो उन्होंने इसे स्पष्ट रूप से अमान्य किया। सम्भवतः उनका आशय था कि लोकोक्तियां देश-काल सापेक्ष धारणाओं पर चल पडती हैं। आज के विस्तारवान विश्व के युग में उनकी व्यापकता का मूल्यांकन किये बिना उन्हें सार्वत्रिकता का रूप कैसे दिया जा सकता है ? क्या हम संत ईसा, मूसा या जरथुस्त के योगदानों को नकार सकते हैं। ललवानी ने सही प्रश्न किया है-जो वस्तु हिंसा से उत्पन्न होती है, उसका उपयोग या उपभोग कर हम हिंसा से कैसे बच सकते हैं ? हमारे यहां कृत, कारित और अनुमोदन का सिद्धान्त प्रचलित है, तब हिंसा से उत्पन्न द्रव्य को उपयोग में लेना हिंसा कैसे नहीं है ? सचित्त को अचित्त बनाने में भी तो जीवघात होता है ? यह तो अच्छा है कि सारा संसार जैन नहीं है, नहीं तो उसके पास सिवाय संल्लेखना के अवलम्बन के बिना कोई रास्ता ही नहीं रहता। अहिंसा की इतनी सूक्ष्म विचारणा उत्तरवर्ती आचार्यों की देन है और उसमें व्यावहारिकता का भी लोप हो गया लगता है। अतः कन्दमूल और अन्य खाद्यों की अत्यधिक अभक्ष्यता पर वर्तमान युग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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