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________________ (466) : नंदनवन पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इसका आधार हिंसा - अहिंसा की धारणा के साथ-साथ वैज्ञानिक भी होना चाहिये । साध्वी मंजुला ने सुझाया है कि जैनों की एतत्सम्बन्धी धारणा मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति की प्रभावशीलता को व्यक्त करती है । उपरोक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि सभी कन्दमूल आहार के अल्प - मात्रिक घटक ही हैं, इसलिये भी इनकी अभक्ष्यता विचारणीय हैं। (14-15) बहुबीजक और बैंगन बहुबीजक वनस्पति ऐसे पदार्थ हैं जिनमें एकाधिक बीज होते हैं, जो नये पौधों की सन्तति को जन्म दे सकें। बैंगन भी इस दृष्टि से बहुबीजक है, पर उसे पृथक क्यों लिया गया, यह पुनरुक्ति दूर होनी चाहिए । सामान्यतः बहुबीजक पदार्थ भी बीजों की संख्या के अनुरूप बहुजीव योनिस्थान होते हैं। अतः वे अनन्तकायिक ही हैं । सम्भवतः सामान्यजनों की स्पष्टता के लिये इन कोटियों को पृथक् गिनाया गया है। साथ ही, बहुबीजक की परिभाषा भी बहुत स्पष्ट नहीं है। एक ओर अनार भक्ष्य है, दूसरी और बैंगन, खसखस, राजगिर आदि अभक्ष्य हैं। यदि हम सामान्य अर्थ ही लें, तो इसके अन्तर्गत प्रायः वे सभी शाक-फल आ जाते हैं, जिन्हें हम दैनिक उपयोग में लेते हैं-कद्दू लौकी, करेला, परवल, सेम, मटर, भिंडी, ककडी, मिर्च, टमाटर, तुरई, कटहल, आदि के समान शाकें तथा नींबू, मौसंबी, इमली, बिजौरा, कैथा, तेंदु, पपीता, संतरा, अनार, सेव, तरबूज, खरबूजा, लीची, अमरूद के समान मौसमी फल । कन्दमूलों के समान तथा सम्भवतः उसी आधार पर ये भी अभक्ष्य हैं। आधुनिक आहार शास्त्री इन शाक- फलों को आहार का आवश्यक घटक मानते हैं। इनमें कन्दमूलों की तुलना में जलांश अधिक होता है। ये आहार के अन्य घटकों के पाचन और स्वांगीकरण में अमोघ सहायक होते हैं । भक्ष्याभक्ष्यता की आधुनिक धारणा के अनुसार कन्दमूल और बहुबीजकों में कोई विशेष अन्तर नहीं प्रतीत होता । अतः इनकी अभक्ष्यता भी पुनर्विचार चाहती है। यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि जिन पदार्थों में जीवघात, स्वास्थ्य - प्र - प्रतिकूलता (जैसे बैंगनी बहुबीजता, अन्तर्बीजता, पित्तजता आदि ) आदि सम्भव है, वे तो अभक्ष्य माने ही जा सकते हैं। लेकिन मात्र अन्तर्बीजता को अभक्ष्यता का आधार नहीं मानना चाहिए। यह तो खाद्यों के उत्पत्ति-स्थान एवं निक्षेपस्थान के परिवेश पर निर्भर करती है। 4. विविध अभक्ष्य : (16-17 ) बर्फ और ओला धर्म संग्रह में बर्फ और ओला दोनों को अभक्ष्य बताया है। इसके विपर्यास में, जैनक्रियाकोश में केवल ओलों को ही अभक्ष्य कहा है। वस्तुतः ठोस जल के रूप होने से दोनों को एक ही जाति का मानना चाहिये । ओला प्राकृतिक है, पारदर्शी ठोस और कठोर होता है तथा कोमल बर्फ से ऊपरी आकाश में शून्य ताप पर बनकर नीचे ठोस पिंड के रूप में गिरता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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