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________________ (458) : नंदनवन बेक्टीरिया, फंजाई) की उत्पत्ति माना जाता है जो अहिंसक दृष्टि का निरूपक है। पर ये सभी जीवाणु अब वनस्पति कोटि के ही माने जाते हैं और ये ही किसी न किसी रूप में हमारे आहार के घटक हैं। इन जीवाणुओं की एक विशेषता यह भी है कि ये प्रायः एककोशिकीय हैं और जीवन तत्त्व के निम्नतम स्तर के निरूपक हैं। इनकी तुलना में, अन्य वनस्पतियां बहुकोशिकीय होती हैं। वस्तुतः "विश्वग् जीवचिते लोके' में शरीर और परिवेश में व्याप्त इन्हीं सूक्ष्म जीवाणुओं का उल्लेख है। इनके बिना हम जीवित ही कैसे रह सकते हैं? यहां यह सूचना भी मनोरंजक होगी कि आचारांग-चूला में अनेक प्रकार के धोवनों (आटा, तिल, तुष, चावल, मांड आदि) की भक्ष्यता चलित-रस (खट्टे) होने पर ही मानी गई है। आगमों में अन्यत्र भी ऐसे खट्टे पान-भोजनों का उल्लेख है। यद्यपि यह विवरण श्रमणों के लिये है, फिर भी यह तो स्पष्ट है कि यह चलितरसता किण्वन या विकृति के बिना नहीं हो सकती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐसे धोवन सुपाच्य एवं पाचक होते हैं। फलतः चलितरसी पदार्थों की अभक्ष्यता की समग्र धारणा पुनर्विचार चाहती है। इसका आधार उत्पाद दोष न होकर शरीर एवं मन पर होनेवाला शुभाशुभ प्रभाव माना जाना चाहिये। हेमचन्द्राचार्य और सोमदेव ने द्विदल को अभक्ष्य बताया है। इसका सामान्य अर्थ ऐसे अन्नों से है जिनके दो समान टुकड़े किये जा सकते हैं। प्रायः सभी दलहन द्विदल होते हैं। शास्त्रों में पुराने द्विदल को अभक्ष्य कहा है क्योंकि बरसात में, पुराने हो जाने पर या अन्य परिस्थितियों में वे घुन जाते हैं, उनमें जीवाणु तो क्या, त्रस जीव भी पाये जाते हैं। यह सामान्य अनुभव की बात है। इससे पुराने द्विदल चलित रस भी हो जाते हैं। अतः जीवघात की दृष्टि से इनकी अभक्ष्यता निर्विवाद है। यही नहीं, यह भी बताया गया है कि द्विदलों को कच्चे दूध या उससे बने दही-मढ़े के साथ नहीं खाना चाहिये। इससे बूंदी का रायता, बड़े, धोल बड़े आदि सभी अभक्ष्यता की कोटि में आ जाते हैं। द्विदलों की अभक्ष्यता से हमारे आहार का एक प्रमुख प्रोटीनी घटक ही समाप्त हो जायेगा। शास्त्रीय दृष्टि से, ऐसे खाद्यों में सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं। यह तो वातावरण एवं किण्वन का प्रभाव है। आशाधर ने इस विषय में कुछ उदारता दिखाई है। वे पकाये हुए दूध से बने दही-मढे से मिश्रित द्विदल को भक्ष्य मानते हैं। फलतः द्विदल एवं दही-मट्ठा मिश्रित द्विदल खाद्यों की अभक्ष्यता पुराने या विकृत द्विदलों पर ही लागू माननी चाहिये, नये द्विदलों पर नहीं। अतः द्विदल के बदले विकृत या पुराने 'द्विदल' शब्द का उपयोग करना चाहिये। फिर भी, यदि चलितरस की अभक्ष्यता है, तो आशाधर का मत खंडित ही रहेगा। यदि किण्वन से प्राप्त पदार्थों की कोटि एक ही बनाई जाती, तो अधिक अच्छा था। इससे अभक्ष्यों की संख्या कम होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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