SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार : (455) उपयोग करते हैं। मद्योत्पादी वनस्पति की ये कोशिकायें त्रस हैं या स्थावर-इस पर पिछली सदी के वैज्ञानिकों में विवाद रहा है। इन्हें स्थावर और त्रसों से एक पृथक् जीव श्रेणी में ही लिया जाता है। फलतः त्रस जीवघात का सिद्धांत मद्य की अभक्ष्यता को पुष्ट नहीं करता है। शास्त्रों में मद्य की अभक्ष्यता के कारणों में उसके व्यक्तिगत व सामाजिक कुप्रभावों को निरूपित किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह माना जाता है कि मद्य की अल्पमात्रा (6-10 मिली. ) औषध, ताजगी, ज्वर-शमन आदि अनेक कारणों से लाभदायी हो सकती है पर अधिक मात्रा हृदय, यकृत, वृक्क तथा मस्तिष्क के कुछ सक्रिय भागों को प्रभावित करती है। इस कारण ही सुखाभास, मोहकता एवं असामाजिकता के लक्षण प्रकट होते हैं। यह सुखाभास की अनुभूति ही इसके व्यसन का कारण बनती है। शास्त्रों में मद्य के जिन प्रभावों के वर्णन हैं, वे अधिक मात्रा में मद्यपान से शरीर-तंत्र के विभिन्न घटकों पर होने वाले प्रभावों के निरूपक हैं। वैज्ञानिकों ने इन दृष्ट प्रभावों के अन्तरंग कारणों का भी ज्ञान किया है। उनकी शोधों ने यह भी बताया है कि अफीम में विद्यमान कोडीन-मोर्फीन, गांजे-चरस-भांग में विद्यमान कैनोविनोल की क्रिया भी, संरचनात्मक भिन्नता के बावजूद भी, शरीर-तंत्र के सक्रिय अवयवों पर मद्य के समान ही होती है। एल. एस. डी., हीरोइन और वर्तमान स्मैक के भी समरूप प्रभाव होते हैं। ये मद, मोह एवं विभ्रम उत्पन्न करते हैं। वैज्ञानिक मद्यपायी की विभिन्न निन्दनीय एवं असामाजिक प्रवृत्तियों की भली-भांति व्याख्या कर सकता है। अतः औषधीय या बाह्यतः सम्पर्कित (मर्दनादि) मद्यमात्रा से अधिक मद्यपान हमारे लिये हानिकारक है। इस प्रकार, स्थावर-जीवघात, मादकता, विकृति एवं अनुपसेव्यता (लोक विरुद्धता) के कारणों से मद्य की अभक्ष्यता और भी प्रयोगसिद्ध रूप से पुष्ट हुई है। इसमें उत्पाद दोष भी है और प्रभाव दोष भी। उनमें उत्पाद दोष चाहे न भी हो, प्रभाव दोष तो है ही। इससे भारत सरकार तक चिन्तित है। सरकार दृश्य-श्रव्य एवं दूरदर्शन के माध्यम से इनके कुप्रभावों के प्रति जनजागरण कर रही है। जैनों के लिये यह प्रसन्नता की बात है। (2) मक्खन मद्य के समान मक्खन को भी विकृति माना गया है। पर यह मान्यता कब प्रचलित हुई, यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं क्योंकि इसका उल्लेख अनेक आगमों में भी है। आ. हरिभद्र, अमृतचंद्र, अमितगति, आशाधर तथा दौलतराम कासलीवाल ने बताया है कि दूध से बने दही को मथकर मक्खन निकालने के बाद उसे एक-दो मुहूर्त (1-1'/, घंटे) में तपाकर घृत के रूप में परिणित कर लेना चाहिए। इसके बाद मक्खन में उसी वर्ग के असंख्यात संम्मूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसके खाने से मधु और मांस के समान दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy