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________________ (438) : नंदनवन ब. सचित्तत्याग प्रतिमा रत्नकरंड श्रावकाचार का श्लोक 141 पांचवीं सचित्त - त्यागप्रतिमा के लिये है। यहां सात प्रकार की 'आम' अर्थात् अपक्व, हरित या सचित्त वनस्पतियों या उनके अवयवों के आहरण का निषेध है। इससे अर्थापतित अचित्त या अचित्तीकृत रूप में ग्रहण करने की विधि प्राप्त होती है । जब पांचवीं प्रतिमा के लिये अचित्त आहरण अर्थापतित है, तो प्रतिमाविहीन श्रावक की तो बात ही क्या ? इस श्लोक का 'आम' शब्द भी वनस्पति के सभी रूपों का विशेषण है। इसे विशिष्ट वनस्पति के रूप में विशेष्य नहीं माना जा सकता। मूल-फल- शाक- आदि में अचित्तता लाकर ही उन्हें भक्ष्य बनाया जा सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी गाथा 379 में सात के स्थान पर पांच सचित्तों के त्याग की बात कही गई है। भावपाहुड़, गाथा 100 भी मुनिचर्या से सम्बन्धित है। इसमें भी सचित्त भक्त - पान से संसार - भ्रमण की बात कही है। आगे की गाथा 101 में सचित्त श्रेणी के कुछ पदार्थों का नाम है जिसकी टीकाकार ने व्याख्या की है। सचि न खाये, तो क्या खाये ? फलतः यहां भी अचित्ताहार के विषय में, रत्नकरंड श्रावकाचार के समान ही, विधि आपतित होती है। यदि ऐसा न होता, तो श्रुतसागर के प्रायः समकालीन शुभचंद्र ने अचित्तीकरण की विधियां या श्वेताम्बर आगमों के वृत्तिकारों ने शस्त्र - परिणमन के अनेक उपाय क्यों बताये होते ? क्या सचित्त और 'हरित' शब्द में केवल प्रत्येक वनस्पति ही आते हैं? यहां भी 'सचित्त' शब्द विशेषण है और 'किंचि' शब्द से कन्दमूलादि के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी कोटि के पदार्थों (जैसे विशिष्ट ककड़ी आदि) का अर्थ लिया गया है। गाथा के अनुसार, सभी कन्दमूल आदि अपनी प्राकृतिक अवस्था में सचित्त हैं। साहित्याचार्य ने तो इस गाथा के अनुवाद में गेहूं आदि धान्यों के सूखे बीजों को योनिभूत मानकर सचित्त बताया है। तो क्या अन्न भी नहीं खाना चाहिये? अचित्तीकरण की विधियां साधारण और प्रत्येक- दोनों कोटि की वनस्पतियों पर लागू होती हैं। यह मान्यता सही नहीं लगती कि साधारण कोटि के वनस्पति अचित्तीकृत नहीं होते या वे अनन्तकायिक अवस्था में ही बने रहते हैं। वे अनन्तकाय ही रहते हैं, फलतः अभक्ष्य हैं। सागारधर्मामृत के श्लोक 7.8 में सचित्तविरत के विवरण में भी, अप्रासुक हरित, अंकुर एवं बीज के त्याग एवं सचित्त भोजन के त्याग का ही संकेत है । इसका भी विधिपरक अर्थ ही लेना चाहिये । इसी प्रकार, मूलाचार एक श्रमणाचार ग्रंथ है। उसकी गाथा 827 में अनग्निपक्व विशेषण ही है, विशेष्य नहीं । यह तथ्य उत्तरवर्ती गाथा 828 से स्पष्ट हो जाता है जहां मुनि के लिये बीजरहित, गूदा निकला हुआ, अग्निपक्व या प्रासुक आहार कल्पनीय बताया गया है। ये सब अचित्तीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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