SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (434) : नंदनवन अधिक लेते हैं, फलतः वह असन्तुलित होती है। इसके लिये जनसंख्या के साथ आवश्यकताओं या इच्छाओं के नियमन की आवश्यकता है । इस विषय में हमारे साधु-सन्तों एवं नेताओं को जनता जर्नादन को सजग करना चाहिये। केवल ईश्वर और भक्ति की महिमा इस दिशा में काम न करेगी। इ. वर्तमान आगमकल्प ग्रंथ जिनवाणी या आचार्य वाणी 'सुत्तेण अणिंदितं' के विषय में भी यह प्रश्न विचारणीय है कि हम "सुत्त' या 'आगम' किसे माने ? आगमों के विभिन्न कोटि के मंतव्यों में युगानुकूलन होता रहा है। इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार परिवर्धनीयता या वर्णनात्मकता रही है। यही जैन धर्म की दीर्घजीविता का मुख्य कारण है। उनकी प्रामाणिकता ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ही माननी चाहिये और ज्ञान विज्ञान के इस युग में उनकी त्रैकालिक प्रामाणिकता की धारणा का मूल्यांकन करना चाहिये। आपवादिक स्थितियों के निर्देश के आधार पर कुछ प्राचीन ग्रंथों को पूर्णतः अप्रामाणिक मान लेना उदार दृष्टिकोण नहीं है। इन निर्देशों से ही संकेत मिलता है कि प्राचीन ग्रंथों के वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-सापेक्ष होते हैं। उन्हें उसी रूप में देखना चाहिये। वैसे भी, आज के उपलब्ध आगम-कल्प ग्रंथ तो त्रिकालव्यापिनी जिनवाणी नहीं हैं, वे सदियों बाद उत्पन्न आचार्यों की वाणी हैं जिन्होंने अपने विचारों को प्रामाणिक मानने के लिये जिनवाणी का आधार लिया है। इनके कथनों में विरोध भी देखा जाता है। इस अर्थ भिन्नता की ओर परम्परावादी ध्यान नहीं देते हैं। नेमचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रंथ और एन. एल. जैन ने एक लेख में आन्तर और अन्तर्विरोधों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। प्रस्तुत प्रकरण से सम्बन्धित सारणी - 1 से भी उक्त तथ्य समर्थित होता है। 1. जहां भावप्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर आदि विभिन्न कन्दों तथा प्याज, लहसुन, अदरक, हल्दी आदि को कन्द कहते हैं, मूली गाजर आदि को मूल कहते हैं, वहीं मूलाचार का मत इससे कुछ पृथक् है। धवला 1.1.41 में आर्द्रक, मूलक, स्नुग (थूहर) आदि को प्रत्येक कोटि का बताया गया है (इस प्रकार इन्हीं की आर्द्ररूप में भी भक्ष्यता सिद्ध होती है) जबकि मूलाचार में इन्हें अनन्तकाय माना है। धवला का मत ही प्रज्ञापना में है। अनेक कोटि के वनस्पतियों को दोनों ही कोटि में बताया गया है (शायक विभिन्न अवस्थाओं में)। फलतः उनकी भक्ष्यता की परिस्थितियां विचारणीय हो गई हैं। वस्तुतः प्रतिष्ठित/अप्रतिष्ठित/साधारण वनस्पति की परिभाषाओं के बावजद भी व्यक्तिगत वनस्पतियों के विभिन्न अवयवों के और उनके भी विविध अंशों के स्वरूप निर्धारण में अस्पष्टता इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy