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________________ वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (435) है कि वह केवल विद्वज्जन के लिये ही बोधगम्य है। सामान्यजन न तो इस कोटि में आते हैं और न ही वे त्यागी हो सकते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आगमों की समयानुकूलन की प्रवृत्ति के कारण इनमें परिवर्तन/परिवर्धन होता रहा है। इसलिये मध्ययुग की अभक्ष्यता के आधार पुनर्विचारणीय हैं । उनके निन्दित या अनिन्दित वक्तव्य आज के संवर्धित ज्ञान की दृष्टि से परीक्षणीय हैं। अब प्रश्न केवल यह रह जाता है कि कन्दमूलों की भक्ष्यता सचित्त रूप में हो, 'आम' रूप में हो या इससे भिन्न रूप में हो। इस पर विचार अपेक्षित है। अर्थापतित या निषेधपरक अर्थ की द्वितःप्रवृत्ति ऐसा प्रतीत होता है कि समन्तभद्र, बट्टकेर या कुन्दकुन्द के समान प्राचीन आचार्यों की प्राकृत गाथाओं में प्रयुक्त 'आम', 'आमक' या 'सचित्त शब्द का कोशीय अर्थ प्रकृत्या अपक्व, अनग्निपक्व, कच्चा या सजीव ही है जैसा मुनि रत्नचंद्र जी ने पंचभाषीय अर्धमागधी कोश में या आप्टे ने संस्कृत-अंग्रेजी कोश' में दिया है। कोशकारों के अर्थ को अनुचित कहने का अर्थ उनकी विद्वत्ता के प्रति अन्याय ही कहा जाएगा। व्युत्पत्तिजन्य या रूढ़ अर्थों का उल्लेख भी वहां किया जाता है। इसी प्रकार 'सचित्त' शब्द भी है। यह 'आम' का समानार्थी भी माना जा सकता है। यदि व्युत्पत्तिजन्य या रूढ़ अर्थ को शास्त्रानुसार व्यक्त करने में एक ओर अर्थापत्ति (सम्यकत्वं च, न देवाः आदि) का उपयोग किया जा सकता है, तो अन्य प्रकरणों में उसकी उपयोगिता क्यों नहीं मानी जाती ? वस्तुतः 'आम' शब्द सामान्य वनस्पति के विशिष्ट प्राकृतिक रूप का द्योतक है, सप्रतिष्ठित प्रत्येक या साधारण वनस्पति मात्र का नहीं। इसी प्रकार, अर्थापत्ति के समान ही निषेध के आधार पर विधि भी अर्थापतित हो जाती है, अनुमानित हो जाती है। जैनधर्म को वैसे ही निषेध-प्रधान या नकारात्मक माना जाता है, तो क्या उसका सकारात्मक पक्ष ही कोई नहीं होगा? नकारात्मक अहिंसा, करुणा, प्रेम और भाई-चारे का प्रतीक है। फलतः निषेध के आधार पर विधि का अनुमान सहज ही लग जाता है। यह सामान्य प्रवृत्ति है। इसका एक उदाहरण मूलाचार, 473( पेज 366) की टीका में दिये गये 'परिणतानि ग्राह्यानि' के रूप में दिया गया है। शास्त्रों में आम और सचित्त कन्दमूलों की स्थिति विभिन्न ग्रंथों में आहार और उसके घटकों या उनके त्याग के सम्बन्ध में दो प्रकरणों में विवरण पाया जाता है : 1. भोगोपभोग-परिमाणव्रत और 2. सचित्तत्याग-प्रतिमा जिसकी कोटि व्रत से उच्चतर होती है। इस प्रतिमाधारी के आहार में सचित्त वनस्पतियों का प्रायः आजन्म और सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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