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________________ वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (433) मान की तुलना में नगण्य ही होगी (10-141)। इस प्रकार, कन्दमूल के आहार से सम्बन्धित हिंसा हमारी समग्र दैनिक हिंसा का नगण्य भाग है। इसके लिये इतना आग्रह समुचित नहीं लगता। आचार्य चंदना जी भी यह मानती हैं कि दुग्ध-उत्पादों का उपयोग, सिल्क की वेशभूषा तथा कृषि-कर्म और उसके उत्पादों के उपयोग से सम्बन्धित हिंसा की तुलना में कन्दमूलों के उत्पादन एवं भक्षण-जन्य हिंसा नगण्य है (जैन स्पिरिट, अक्टूबर, 99 पेज 18)। शास्त्र बताते हैं कि हमारे आहार का हमारी मानसिकता एवं व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। फलतः हमारा आहार सात्विक होना चाहिये। इसके अन्तर्गत स्वास्थ्य के लिये उपयोगी कन्दमूलों के प्रभाव की दृष्टि से उनकी अल्पमात्रिक घटकता के आधार पर डां. राजकुमार जैन एवं 'तीर्थंकर ने भी विचार किया है और कहा है कि इससे आचारगत पवित्रता खंडित नहीं होती और स्वस्थता तथा दीर्घजीविता भी प्राप्त होती है। यह पवित्रता या सात्विकता देश-काल-सापेक्ष होती है और खाद्यों की उपलब्धता पर भी निर्भर करती है। यही नहीं, ललवानी ने तो यह भी कहा है कि जो वस्तु हिंसा से उत्पन्न होती है, उसका उपयोग या उपभोग कर हम हिंसा से किसी प्रकार भी नहीं बच सकते। कृत, कारित, अनुमोदन के सिद्धान्त के प्रचालन में हिंसा से उत्पन्न पदार्थों के उपयोग में हिंसा कैसे न मानी जाय ? सचित्त को अचित्त करने में भी तो जीवघात होता है। यह तो अच्छा है कि सारा संसार जैन नहीं है, नहीं तो उसे सिवाय सल्लेखना के कोई चारा ही न रहता। वस्तुतः अहिंसा की इतनी सूक्ष्म व्याख्या उत्तरवर्ती आचार्यों की देन है जिससे उसमें व्यावहारिकता का भी लोप हो गया लगता है। अतः इस कोटि के पदार्थों की आत्यन्तिक अभक्ष्यता वर्तमान पोषाहार के वैज्ञानिक युग में प्रचण्ड विचार के घेरे में आ गई है। इसका आधार, जैसा पहले कहा है, हिंसा-अहिंसा के अतिरिक्त संज्ञाओं पर भी वैज्ञानिकतः आधारित होना चाहिये। स. कन्दमूलों में सांद्रित जीवन होने की बात इसलिये कही जाती है कि इनमें प्रत्येक वनस्पतियों की तुलना में जलांश कम होता है। फलतः इनके यूनिट क्षेत्रफल में सजीव या प्रसुप्त कोशिकाओं की संख्या अधिक होगी। चूंकि प्रसुप्त कोशिकाओं में चैतन्य (जो जीवन का लक्षण है और हिंसा का आधार है) की सामान्य मात्रा हरितकायों की तुलना में अल्प होती है, अतः उनकी हिंसा का मान अल्प ही होता है। वैसे भी भाव प्राणों या चैतन्य गुण का विनाश ही हिंसा माना जाता है। मात्र शरीर विनाश हिंसा नहीं है। द. कन्दमूल के आहरण से भूमिगत पर्यावरण के असन्तुलित होने की युक्ति में हिंसा पर आधारित विशेष महत्त्व नहीं है। यह तो प्रकृति स्वयं संतुलित करती रहती है। वस्तुतः पर्यावरण का असन्तुलन हमारी जनसंख्या वृद्धि एवं आवश्यकता वृद्धि पर निर्भर करता है। इसके कारण हम प्रकृति से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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