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________________ (428) : नंदनवन चार रूपों में से केवल तीन रूपों (वनस्पति, वनस्पतिकायिक एवं वनस्पति जीव) के कारण है जिनमें सजीवता या सचित्तता होती है। यदि साधारण वनस्पति, वनस्पतिकाय (दूसरा भेद) के रूप में हो, तो वह भक्ष्य है । वनस्पति का यह रूप अचित्त या निर्जीव होता है। सचित्ताहार त्याग जीवन के उच्चतर स्तर (शिक्षाव्रत या पांचवीं प्रतिमा) पर ही नियमित होता है। इसे सामान्य जन या पाक्षिक श्रावक पर लागू करना सही नहीं है। संसारी जीव (विशेषतः जिनके मनि होने या मोक्ष जाने की सम्भावना है) चार प्रकार के माने जाते हैं : 1. सामान्य जन, 2. श्रावक जन (तीन प्रकार के) 3. साधुजन एवं 4. अभव्य जन। पहली तीन कोटियां भव्य भी कहलाती हैं। इनमें साधुजन तो अल्पसंख्यक ही होते हैं -प्रायः पैंतीस सौ में एक (सम्पर्क 2000 के अनुसार दिगम्बरों में सभी कोटि के त्यागीजनों की संख्या 818 है और दिगम्बर प्रायः 50 लाख तक माने जा सकते हैं)। इनकी आहार-विहार संहिता परमार्थमुखी हो सकती है। साथ ही, नैष्ठिक एवं सल्लेखनामुखी साधक श्रावकों की संख्या भी अल्प ही होगी - मान लीजिये त्यागियों से दुगनी अर्थात एक हजार में एक के लगभग होगी। प्राचीन जैन शास्त्रों में इन्हीं से सम्बन्धित आहार-विहार का वर्णन है । इसका अर्थ यह हुआ कि प्राचीन जैन आहार-विहार केवल 3 प्रतिशत जनों के लिये ही है। इसीलिये पश्चिमी विचारक जैन धर्म को अल्पसंख्यकों के धर्म होने का आरोप लगाते हैं। इस आरोप का निराकरण आवश्यक है। क्षु.-ज्ञानभूषण जी ने सही लिखा है कि पारमार्थिक या संयमी जीवों का मार्ग, गृहस्थों की तुलना में, उल्टा ही होता है। कहां इंद्रिय-दमन और कहां इंद्रिय-पोषण, कहां स्थूल हिंसा का त्याग और कहां सूक्ष्म हिंसा का भी त्याग ? दोनों के लिये एक-सी आचार संहिता कैसे बन सकती है ? पं. आशाधर जी ने सही लिखा है कि गृहस्थजन चारित्रमोही होते हैं, अतः उनके लिये त्यागियों का नहीं, गृहस्थधर्म ही श्रेयस्कर है। हमें जैन मान्यताओं को बहुसंख्यक-पालनीय बनाना होगा। फलतः पाक्षिक श्रावक एवं सामान्यजन की बहुसंख्यक कोटि और गृहस्थी एवं व्यवसाय भरे जीवन के लिये शुद्ध पारमार्थिक संहिता लाभकारी नहीं है। वस्तुतः गृहस्थों को आचार-विचार से सम्बन्धित अष्ट मूलगुण, सात व्यसन या बाईस अभक्ष्य की धारणा उत्तरवर्ती है जो मध्ययुग में उनके जीवन को धर्ममुखी बनाने के लिए विकसित की गई होगी। यह प्राचीन आचार्यों के शास्त्रीय युगानुकूलन का एक उदाहरण है। यद्यपि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 328 की शुभचंद्री टीका (सोलहवीं सदी) में दर्शन प्रतिमा में अनेक वस्तुओं के न खाने की बात कही गई है, पर कन्दमूल न खाने का संकेत वहां नहीं है। हां, चारित्रपाहुड़ 21 की श्रुतसागरी टीका (सोलहवीं सदी) में कन्दमूलों के त्याग का संकेत है, पर उन्हें अभक्ष्य नहीं कहा गया है। इनकी अभक्ष्यता के रूप में गणना सम्भवतः उत्तरवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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