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वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (429)
'व्रत-विधान संग्रह', 'धर्मसंग्रह' या 'पंचसंग्रह' के युग से प्रारम्भ हुई होगी । इसीलिये प्राचीन ग्रंथों में इस रूप में इनका उल्लेख नहीं पाया जाता। फिर भी, अभक्ष्य (या त्रसघात) त्याग पहले होता है और सचित्त त्याग उसका पर्याप्त उत्तरवर्ती चरण है।
केवल धार्मिक दृष्टि से यह धारणा सही हो सकती है कि हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से प्रत्येक शरीरी वनस्पतियों के सचित्त या अचित्त रूप में आहरण में हिंसा अल्प होगी । क्षु. ज्ञानभूषण जी ने भी यही कहा है कि हरित या सचित्त वनस्पतियां शुष्क, निर्जीव और अग्निपक्व अचित्त वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक सदोष हैं। पर संसार में प्राणियों में केवल धर्म-संज्ञा ही नहीं होती, उनमें आहार, निद्रा, भय, मैथुन और आवेगों की संज्ञायें भी होती हैं। इनके लिये आवश्यक स्वस्थवृत्त भी धार्मिक दृष्टि से स्वीकृत होना चाहिये। इन संज्ञाओं के कारण भी अनेक प्रकार की अनिवार्य हिंसा होती है। इसी प्रकार, कृषि, व्यवसाय, शिल्प आदि में भी हिंसा के अनेक रूप अनिवार्यतः समाहित होते हैं। इस प्रकार की हिंसा, कन्दमूल-भक्षण-जन्य हिंसा की तुलना में पर्याप्त बहुमानी होती है।
वस्ततः साधारण वनस्पतियों की दो कोटियां हैं : 1. शर्करीय या कार्बोहाइड्रेटी (धान्यों के समान आलू, घुइयाँ और कन्द आदि) और 2. अशर्करीय (हल्दी, अदरख आदि)। इनमें से अधिकांश का रासायनिक संघटन ज्ञात हो चुका है। इनमें शाकों की अपेक्षा जलांश कम होता है। इनकी खाद्य-घटकीयता बहुमूल्य है। प्रथम कोटि के पदार्थों में सुपाच्य शर्करायें होती हैं जो स्वास्थ्य लाभ में सहायक होती हैं और दूसरी कोटि में रोग-प्रतिकार-क्षमता तथा क्षारकता के घटक होते हैं। इसीलिये प्राचीन ग्रंथों में इन्हें साधुओं के लिये भी अग्निपक्व कर खाने का उल्लेख है। यह भी विचारणीय है कि भगवती 23.1 में साधारण वनस्पतियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य आयु मात्र अन्तर्मुहूर्त ही बताई गई है। इससे क्या यह फलित होता है कि वे अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रत्येक वनस्पति के रूप में परिवर्तित हो जाते होंगे ? यह उनके बहुकोशिकीय रूप ग्रहण करने से ही सम्भव है। इनमें अनेक कोशिकाओं के तिल-पपड़ी में तिलों या लड्डू में कणों के बन्ध के समान श्लेष होने में पर्याप्त ऊर्जा व्ययित होती है, फलतः इनकी प्रति कोशिका प्राणशक्ति कम हो जाती है। इसीलिये सम्भवतः प्रज्ञापना 1.49 में अनेक पत्तेवाली भाजियां व मूली आदि प्रत्येक-वनस्पति में गिनाई गई हैं |
जीवों की कोशिकीय संरचना के आधार पर वनस्पतियों का प्रत्येक एवं साधारण रूप मे वर्गीकरण अब एक ऐतिहासिक तथ्य है। दोनों प्रकार के बादर वनस्पति बहुकोशिकीय पाये गये हैं जो अपने विकास के समय नितनयी कोशिकाओं का सर्जन एवं विनाशन करते रहते हैं। अनन्तकायिक
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