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________________ वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (427) चरम लक्ष्य प्राप्त करता है। व्यावहारिक संसारी जीव अपने स्वास्थ्य-रक्षण एवं रोगमोक्षण के माध्यम से समुचित आहार-विहार ग्रहण कर धर्म - साधन कर पारमार्थिक जीव बन सकता है। जन्म से कोई पारमार्थिक नहीं होता । मूलाचार 479 में भी आहार के अनेक उद्देश्यों में आवश्यक क्रियाओं, संयम और धर्म के पालन के उद्देश्य बताये गये हैं । इसीलिये 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं' की उक्ति बलवती हो गयी है। यह कितना मनोरंजक एवं हास्यास्पद मत है कि धर्म और शरीर स्वास्थ्य परस्परतः असम्बद्ध हैं । यदि ऐसा ही होता, तो आयुर्वेद ग्रंथ क्यों लिखे जाते और नैपुणिकों की गणना में चिकित्सक का समाहरण क्यों किया जाता, जबकि यह आगमिक परम्परा में पापश्रुत माना जाता है (स्थानांग, स्थान 9 ) 11 ? क्या इनके लेखक आचार्य परमार्थी नहीं थे ? वस्तुतः आहार एवं स्वास्थ्य अन्योन्य-सम्बद्ध हैं । समुचित पोषक आहार ही स्वास्थ्य और धर्म का पालक- रक्षक होता है । अतः आहार की गुणवत्ता पर सामान्य जन की ये क्रियायें निर्भर करती हैं। इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती । आहार - विज्ञानी बताते हैं कि हमारे लिये समुचित मात्रक सप्त- घटकी आहार होना चाहिये जिसमें (1) शर्करा, (2) बसा (3) प्रोटीन (4) खनिज (5) विटेमिन (6) हार्मोन और (7) जल होना चाहिए। 12 इनमें कुछ घटक प्रत्येक वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं और कुछ साधारण वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं । दिगम्बर आम्नाय वर्तमान में यह मानता है कि साधारण वनस्पतियों को किसी भी रूप में किसी को भी आहार में नहीं लेना चाहिये । इसके विपर्यास में, श्वेताम्बर आम्नाय में इस पर किंचित् स्वैच्छिकता है । वनस्पतियों की भक्ष्यता : किसके लिये ? क्षु ज्ञानभूषण जी ने अपने 'सचित्त विचार में इन वनस्पतियों की भक्ष्यता पर प्रकाश डाला है। ये विचार बीसवीं सदी के पूवार्द्ध में व्यक्त किये गये थे। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण 1994 में दिगम्बर सम्प्रदाय की विश्रुत संस्था वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट, जयपुर से अजमेर जैन समाज के सौजन्य से प्रकाशित हुआ है। इसमें साधारण वनस्पतियों की भक्ष्यता का आगम से और व्यावहारिकतः समर्थन किया गया है। इसके विवरणों पर कोई समीक्षा देखने में नहीं आयी और उनकी शिष्य मंडली भी इस विषय में मौन है। इससे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्राचीन परम्परावादियों में तथा इस युग के विचारकों में आहार के हरित या साधारण वनस्पति अंश के प्रति विसंवादिता है। शास्त्रीय गाथाओं / शब्दों की व्याकरण-सम्मत, ऐकान्तिकतः अर्थापति एवं सकारात्मक व्याख्या की भिन्नता ही इसका कारण है। पूज्य क्षुल्लकजी (उत्तरवर्ती आ. ज्ञानसागर जी) ने यह बताया है कि अभक्ष्यता का सम्बन्ध त्रस - घाती खाद्यों से है । स्थावरों की अभक्ष्यता उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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