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________________ हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (379) होगी। हम लोग अपने आहार में ही प्रतिदिन लगभग 50-60 वर्ग सेमी. हरी पत्तियों या सब्जियों का उपयोग करते हैं। इसमें ही 5 x 10° (50 लाख) यूनिट हिंसा करते हैं। सम्भवतः इसीलिये जैन आहार - विज्ञान में हरितकाय के भक्षण का साधारणतः निषेध किया गया है। इसके विपर्यास में, प्रत्येक शरीरी खाद्यों के उपयोग में हिंसा कम होती है। उसमें कोशिकायें तो अनेक होती हैं, पर वर्धी कोशिका एक ही होती है। इसीलिये एक दाने से एक ही एकबीजी या बहुबीजी पौधा उगता है। इसलिये इसका जीवनमान 1 ही माना गया है । यदि हम एक सामान्य व्यक्ति के भोजन में 500 ग्राम अनाज व दालें (लगभग 12,500 दाने ), 250 ग्राम फल व शाक-सब्जी, 25 ग्राम तेल-घी, (700 तिल - दाने) तथा 25 ग्राम गुड़ और शक्कर (200 ग्राम गन्ना ) मानें, तो इस आहार का जीवनमान निम्न होगा : (1) अनाज व दालें ( 2 ) तेल और घी (3) शक्कर और गुड़ (4) शाक-सब्जी : 12,500 दाने : 700 तिल : 200 ग्राम गन्ना : 60 वर्ग सेमी. (5) विविध अन्य 10 प्रतिशत: 6,31,320 यूनिट योग : 12,500 यूनिट : 700 यूनिट : 3X10 ° यूनिट (अनु. 3 वर्ग सेमी.) : 6X10 यूनिट (प्रत्येक वनस्पति) : 63,13,200 यूनिट : 69,44,520 = 6.9 x 10° यूनिट इस परिकलन से यह स्पष्ट है कि हिंसा - अहिंसा की दृष्टि से प्रत्येक शरीरी एकबीजी (एक शरीर - एक आत्मा वाले) खाद्यों में, हरित वनस्पतियों ( एक - शरीर अनन्त आत्मावाले) की तुलना में, हिंसन बहुत कम होता है। इसीलिये साधुओं के आहार में हरितकाय कम ही होता है। हां, फल अवश्य होते हैं जो प्रत्येक शरीरी खाद्यों के समकक्ष होते हैं । बहुबीजी फलों का गूदा निकाल लिया जाता है। गृहस्थों के आहार में ऐसा कोई विशेष प्रतिबन्ध नहीं होता। यही नहीं, श्वेताम्बरों की तुलना में, दिगम्बरों में भक्ष्याभक्ष्य - सम्बन्धी हिंसा की पर्याप्त तीक्ष्णता प्रकट होती है । यह कितनी व्यावहारिक है, यह बात अलग है। यह परिकलन शास्त्रीय धारणा पर आधारित है। वैज्ञानिक दृष्टि से, कोशिकीय सिद्धान्त के आधार पर यह परिकलन भिन्न ही होगा। सजीव एकेन्द्रिय कोशिकाओं की संख्या वनस्पति के आकार - विस्तार पर निर्भर करती है। हां, वर्धी कोशिका की बात ही अलग है। Jain Education International (स) आहार - भिन्न हिंसा : (1) सामान्य हिंसा धार्मिक दृष्टि से भक्ष्यता सम्बन्धी मान्यता सही भी हो, पर संसार के प्राणियों में केवल धर्म ही नहीं, आहार, निद्रा, भय, मैथुन, आवेग आदि की संज्ञायें भी होती हैं। इनके कारण भी अनेक प्रकार की अनिवार्य हिंसा होती है । इसी प्रकार, कृषि एवं शिल्प आदि में भी हिंसा के अनेक रूप अनिवार्यतः समाहित होते हैं । 'विश्वग् जीवचिते लोके' की धारणा से हमारी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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