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________________ (380) : नंदनवन हिंसावृत्ति कितने परिमाण में होती है, यह परिकलित करना बड़ा कठिन है। फिर भी, यह अनन्त तो मानी ही जा सकती है। यदि अनन्त का न्यूनतम मान उत्कृष्ट असंख्यात + 1 मान लिया जाय और उत्कृष्ट असंख्यात का न्यूनतम 101 x 10216 (उत्कृष्ट संख्यात) मान लिया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति की औसत हिंसा का मान : 105" x 10216 x 120 x 5 x 10% = 1074 यूनिट होगा। यह न्यूनतम संख्या सामान्य दैनिक जीवन की हिंसा का अनुमान देती है। हम आलू आदि कन्दमूलों की हिंसा का भी परिकलन कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, कन्दमूल आदि आहार के अल्पमात्रिक घटक ही होते हैं और इनकी सामान्य आहार-मात्रा (जैनों के लिये ?) प्याज का एक चौथाई गठिया (2 वर्ग सेमी.) और एक अच्छा आलू (50 ग्राम, 6 वर्ग सेमी.) मानी जाय, और ये साधारण वनस्पति तो हैं ही, फलतः इनके कारण होने वाली हिंसा, 8 x 10° x 120 ~ 10 यूनिट होगी। अनेक विद्वानों का कथन है कि कन्दमूलों के भक्षण में नहीं, इनके खोदने में पर्याप्त हिंसा होती है क्योंकि उनके आश्रित अनेक जीव होते हैं जो इन्हें खोदने पर निराश्रित होकर निर्जीव हो जाते हैं? वैसे यह माना जा सकता है कि इनमें कम-से-कम आधे जीवों को पृथ्वी ही, या पास-पड़ोस के वनस्पति ही आश्रय देंगे। इस प्रकार, इनके क्षेत्रफल के आधार पर इनसे आश्रित एकेन्द्रिय जीवों की संख्या संख्यात (अचलात्म) ही माननी चाहिये जिसका मान त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनुसार 104 है। फलतः इन जीवों पर आधारित हिंसा : 10122 x 14 (पूरे प्याज का गठिया + एक आलू) x 10° x 3 (कृत हिंसा) = 4.2 x 10129 होगी । फलतः, सामान्य आहार में होने वाली कुल हिंसा, = 10° + 4.2 x 10128~ 4.2 x 10136 यूनिट होगी । ___ हम यह बता चुके हैं कि हमारे सामान्य आहार में 6.9 x 10° यूनिट हिंसा होती है। इसके विपर्यास में, यह हिंसा अनेकगुनी लगती है। पर यह 10274 के मान से कितनी कम है ? फिर भी, हमने यह परिकलन केवल पदार्थों के अन्तर्ग्रहण के आधार पर किया है, उनके उत्पादन में जो कषिजन्य हिंसा होती है, उसपर विचार नहीं किया है। यह माना जा सकता है कि हमारे एक आहार के लिये उपयोगी कृषि-भूमि का क्षेत्रफल 1620 वर्गसेमी. (1.80 वर्ग मीटर) होता है जिसमें हिंसा का मान 1620 x 10° =1. 62 x 10" यूनिट होता है । हमारे आहार में जल की भी पर्याप्त मात्रा होती है, श्वासोच्छवासीय वायु तो सदैव रहता है। भोजनालय एवं पचन-पाचन में अग्निकायिकों का भी उपयोग होता है। इनकी प्राणशक्ति द्वीन्द्रियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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