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________________ (354) : नंदनवन सामाजिकता से किंचित् विगलित हो गये। इसलिये हम पर यह भी आरोप है कि जैनधर्म असामाजिक धर्म है। उनके अर्हत् भी स्वार्थी हैं, वे स्वयं निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं और सामान्यजन को संसार में ही छोड़ जाते हैं। हमारे आत्मवादी ने कभी यह प्रयत्न नहीं किया कि वह दूसरों के द्वारा लगाये गये आरोपों को पुष्टरूप से निराकृत कर सके। यदि आप जैनों का प्राचीन या अर्वाचीन इतिहास देखें, तो जैनेतरों ने ही अधिकांशतः इसे सुरक्षित रखा है, ऐतिहासिक अस्तित्व में बनाये रखा है। 'अप्पा अप्पम्मि रओ' के अनुयायियों का तो यही कथन है कि आत्मवादी को संख्या का महत्त्व नहीं है, अपनी गुणवत्ता का महत्त्व है। यह सही नहीं है, आज संख्या का भी महत्त्व है। आज के युग में "सभी आत्मायें समान हैं" के सिद्धान्त को समस्थितिकता के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास करना होगा। 'आत्मवाद' की समाजमुखी व्याख्या करनी होगी। पुनर्जन्म एल्गर नामक पादरी ने 1980 में कहा था कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त मानव-जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान करता है। यह कर्मवाद के "जैसी करनी वैसी भरनी' के सिद्धान्त पर तथा आत्मा की नित्यता पर आधारित है। इस मान्यता ने हमें सहिष्णु बनाया है, आशावादी भी बनाया है। जैनों का यह सिद्धान्त सर्वज्ञ या विशिष्ट ज्ञानियों की अनुभूति से प्रतिफलित हुआ है। आत्मतत्त्व के विपर्यास में पुनर्जन्म पर 1860 से ही अनुसंधान चालू हो गये हैं और पुनर्जन्म सम्बन्धी प्रकरणों पर अनेक पुस्तके लिखी गई हैं। इयान स्टीवेंसन मानते हैं कि उनके द्वारा अध्ययन किये गये प्रकरणों में पुनर्जन्म की उपकल्पना सैद्धान्तिक दृष्टि से बनती तो है, पर इसके लिये अभी काफी ठोस प्रमाणों की आवश्यकता है। जाति-स्मरण, शरीर चिन्हों का पूर्व-स्थान में होना, अतीद्रिय ज्ञान, परकाया-प्रवेश आदि की घटनाओं की प्रामाणिकता तथा उनके व्याख्यात्मक अध्ययन से इस उपकल्पना को बल मिल सकता है। __अस्तु,- आत्मा एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को वैज्ञानिक मान्यता दें या न दें, पर ये मान्यतायें भारतीय जनमानस के विश्वास की कोटि में आ गई हैं। मुनि महेन्द्र ने बताया है कि अनेक विद्वानों की नकारात्मक धारणा के बाबजूद भी, वेदों, बाइबिल और कुरान में इन धारणाओं के बीज पाये जाते हैं। अनेक पूर्ववर्ती विद्वान भी इस मान्यता में आस्था रखते थे। पर इन मान्यताओं के जो रूप जैन और हिन्दू शास्त्रों में मिलते हैं, इनकी मनोवैज्ञानिक प्रभाविता के जो निदर्शन हमारे शास्त्रों में हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ ही हैं। कर्मवाद और पुनर्जन्म की धारणाओं में हमारे वैचारिक विकास को, भले ही वह उत्तरवर्ती क्यों न हो, एक नया आयाम प्रदान किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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