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________________ आत्मा और पुनर्जन्म : (353) इनमें 'जीव' का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष सिद्ध है। पर आत्मा के अमूर्त स्वरूप ने इसके अस्तित्व को विज्ञान से बाहर की सीमा में रख दिया है। 'आत्मा' व्यक्तिगत होती है जैसे 'चेतना' व्यक्तिगत होती है। आत्मा का शुद्धचैतन्य-स्वरूप नितान्त स्वानुभूतिगम्य 'व्यक्तिगत' होता है। वैज्ञानिक अभी यह अनुभूति नहीं कर पाये हैं। पर आत्मा के जो ज्ञान-दार्शनिक गुण हैं, उनकी व्याख्या वे 'मन' या 'मस्तिष्क' नामक नो-इंद्रिय तत्त्व से कर लेते हैं। छह प्रकार के आहारों के चयापचय से उत्पन्न ऊर्जा मस्तिष्क के विशिष्ट केन्द्रों को संवादी इंद्रियों के उत्तेजन के माध्यम से विभिन्न कार्य करती है और विद्युत संचार पथ बनाती है। यही नहीं, यह तो अब सुज्ञात है कि मन और मस्तिष्क, शरीर के भिन्न-भिन्न घटक हैं। इनमें मस्तिष्क का सभी को प्रत्यक्ष है और मन चेतना का प्रतीक (शक्त्यात्मक) माना जाता है। नयी खोजों से इसकी जीव-वैज्ञानिक तथा आणविक संरचना की सम्भावना बलवती हो रही है। फलतः यदि चेतना भौतिक सिद्ध हुई, तो आत्मा की अमूर्तता किंचित् संदिग्ध हो जायेगी। जैन दार्शनिकों ने 'आत्मा' को "मैं हूं', विरोधी के अस्तित्व (अजीव) आदि अनेक तार्किक युक्तियों से सिद्ध किया है। पर वैज्ञानिक इस विषय में अभी पूर्णतः सकारात्मक नहीं हैं। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री कार्ल सागन ने तो इसे मात्र उपकल्पना माना है। लेकिन धार्मिकजन शुद्ध आत्मा के अनन्त कोटि के गुणों से इतना आकृष्ट है कि वह जीव तत्त्व के बदले आत्मतत्त्व के प्रति अधिक आकृष्ट हो गया और भूतकाल से अपनी कर्मबन्ध की चोटी बांधली और भविष्यत् काल के लिये भी कर्म की बेड़ी बांध ली। फलतः उसने अपनी गतिशीलता को कुण्ठित कर लिया। राजकृष्ण ने एक शब्द दिया है-"हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ", उसका अर्थ है कि आत्मवादी मनोवृत्ति में दार्शनिकता, संतोष तथा प्रतिद्वंद्वीवृत्ति के अभाव में विकासदर नगण्य ( 3 प्रतिशत) ही होती है और वह यथास्थितिवादी बन जाता है। ___ तथापि, आत्मवाद की स्वीकृति में भयंकर आकर्षण है । सम्पूर्ण दुःख निवृत्ति का, अनन्तसुख का आदि-आदि । कम से कम यह जीवन के आदर्श तो देता है, चाहे हम उसे प्राप्त कर सकें या नहीं । हमें कल्पनाओं के लोक में सैर कराकर वह हमें जागतिक समस्याओं की जटिलता से दूर रखता है। सम्भवतः इसीलिये हमारे ऊपर पलायनवादी तथा नकारात्मक होने का आरोप है। पर यह सही नहीं है। आत्मवाद हमें एक लक्ष्य प्रदान करता है, जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण देता है, हमारी ज्ञान पिपासा शान्त करता है और हमें अपने भाग्य का निर्माता बनने की प्रेरणा देता है। इस प्रेरणा से किंचित् हानि भी हुई है। हम मानसिकत: किंचित् अधिक स्वार्थी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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