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________________ आत्मा और पुनर्जन्म : (355) यदि इन धारणाओं को न मानें तो अब हम एक कल्पना करें कि यदि आत्मा और पुनर्जन्म की धारणायें नहीं होतीं या उन्हें हम न मानें, तो क्या होगा ? क्या मनुष्य अपनी भौतिक और मानसिक सुख - प्राप्ति के ध्येय से वंचित रहेगा? क्या वर्तमान धर्मों के दर्शन, ज्ञान - चारित्र के विकास के नियम हमारे जीवन - विकास में सहायक नहीं होगें ? क्या जिन मान्यताओं में (बुद्ध (पुनर्जन्म मानते हैं), चार्वाक आदि ) ये धारणायें नहीं हैं, वे हमसे दुर्बल स्थिति में हैं ? तुलनात्मकतः अध्ययन करने पर हमें लगता है कि वे सभी हमारे समकक्ष स्थिति में ही हैं। यद्यपि बौद्धधर्म मूलतः गृहस्थधर्म नहीं है, अतः वह भारत से बाहर विकसित हुआ, पर जैन धर्म गृहस्थ एवं मुनिधर्म होते हुए भी यहीं सिमटा रहा। हमारी ये धारणायें कि निरात्मवादी धारणायें उन्नति के उच्चतम शिखर पर नहीं पहुॅचा सकतीं, उनमें अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक जटिलताये हैंआदि वस्तुतः सही नहीं लगतीं। ये सभी स्थितियां हमारे साथ भी हैं। यही नहीं, आज अनीश्वरवादी एवं अनात्मवादी बौद्धों की संख्या संसार में तीसरे नंबर पर आ गई है। उनकी तुलना में हम कहां बैठते हैं ? पर हमारे पास ध्यान - योग, तपश्चर्या आदि उपाय हैं जिनसे हम उन स्थितियों पर शरीर - क्रियात्मकः एवं तंत्रिका - वैज्ञानिकतः नियंत्रण पाते हैं । सम्भवतः अधिक सुख - संतोष का अनुभव करते हैं । यह सौभाग्य की बात है कि ध्यान-योग के विविध रूप आज भारतेतर देशों में भी पहुँच रहे हैं और वहां के निवासी हमसे अधिक लाभान्वित हो रहे हैं ? तब फिर आत्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद के विश्वासों में किंचित् अनास्था तो जन्म लेती ही है। यह अनास्था कैसे दूर हो, यह इक्कीसवीं सदी का यक्ष प्रश्न है । सम्भवतः हमारे साधुजनों के प्रयास इस अनास्था को निराकृत करने में सहायक हों, यही हम सबकी कामना है। I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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