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________________ (316) : नंदनवन में समाहरित-संस्कारित होती हुई भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। इसके प्रत्येक रूप क्षेत्र-विशेष में सीमित होते हैं जिनके आधार पर इनकी संज्ञा होती है - मुण्डा, गौड़ी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि। इसी आधार पर कोशकार आप्टे ने भी प्राकृत भाषा का अर्थ स्वाभाविक या क्षेत्रीय जनभाषा बताया है। हरदेव बाहरी भी प्राकृत को मूलभाषा एवं अन्य भाषाओं की जननी मानते हैं । इसलिए आचार्य हेमचन्द्र के मत के विपर्यास में, अधिकांश भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि प्राकृत भाषा संस्कृत मूलक नहीं है। यह स्वतन्त्र समानान्तर एवं पूर्ववर्ती भाषा है। फलतः सम्बन्धित जनभाषा को किसी भी साहित्यिक भाषा का प्रथमस्तर माना जाता है। वाकपतिराज, राजशेखर, यहां तक कि पिशल के समान पश्चिमी विद्वानों ने भी इन जनभाषाओं को ही प्राकृत भाषा कहा है। सामान्यतः यह माना जाता है कि महावीर और उनके उत्तरवर्ती युग में बच्चे (प्रायः 15 प्रतिशत), स्त्रियां (प्रायः 50 प्रतिशत), अशिक्षित (प्रायः 20 प्रतिशत) और वृद्ध व्यक्ति (प्रायः 5 प्रतिशत), एवं छद्मवेशी साधु, प्राकृत भाषा ही बोलते थे । फलतः उस समय प्रायः 90 प्रतिशत से अधिक लोग प्राकृत बोलते रहे होंगे। यह तथ्य नाटकों के कथोपकथनों से पुष्ट होता है। इससे उस समय की भीषण अशिक्षा का भी अनुमान होता है। प्राकृत भाषा का साहित्यिक रूप और आगमों की भाषा 2.3 जब कोई भाषा साहित्यिक रूप ग्रहण करती है, तो उसके स्वरूप में परिष्करण एवं समाहरण की प्रक्रिया कुछ तेज या क्षीण होती है। जब यह एक ही सीमांत पर पहुँच जाती है, तब उसका मानकीकरण एवं व्याकरण निबन्धन होता है। इस प्रकार किसी भी जनभाषा या प्राकृत भाषा का साहित्यिक स्वरूप उसका द्वितीय स्तर कहा जाता हैं । प्राकृत भाषा में विशाल साहित्य है। यह विभिन्न क्षेत्रों में और युगों में निर्मित हुआ है। इसका ऐतिहासिक एवं काल दृष्टि से अध्ययन करने वाले विद्वानों ने इस द्वितीय स्तर के विकास के तीन चरण बताए हैं । इनमें, तत्सम, तद्भव एवं देशी शब्दों का समाहार भी पाया जाता है। इसमें जनसंपर्क, परिभ्रमण एवं दो या अधिक क्षेत्रों के सीमान्त आदि कारणों से अनेक भाषाओं का प्रभाव समाहित हुआ है। इस समाहरण से ही उसमें बहुजन-बोधगम्यता आई है। इसने छान्दस् भाषा को भी अंतर्गर्भित किया है। इस विविध भाषिक समाहारों के कारण इसका व्याकरण बनाना अत्यन्त कठिन कार्य है। संस्कृत में तो इस प्रकार का विविध-भाषा-समाहार बहुत सीमित था, अतः पाणिनि ने उसे 'उणादिगण' के द्वारा नियमित कर दिया । पर प्राकृत भाषा में यह सम्भव नहीं था, अतः प्रारम्भ में न इसका व्याकरण बना और न ही उत्तरवर्ती काल में इसका कोई-उणादिगण' समकक्ष अपवाद प्रकरण ही । 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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