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________________ दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा सम्पादन और संशोधन की विवेचना (315) : सर्वभाषात्मक होती है, यह अठारह महाभाषा और सात सौ लघुभाषाओं का समग्र रूप होता है जिससे यह सभी प्राणियों को बोधगम्य होती है । अनेक भाषाओं में परिणमन करने की क्षमता तथा मुख्यतः मगध में देशित होने के कारण समवायांग, काव्यानुशासन, औपपातिक सूत्र, महापुराण आदि ग्रंथों में इसे अर्धमागधी कहा गया है। इसका मूल उत्पत्ति - स्थान मगध (पूर्व) और शूरसेन (मथुरा पश्चिम) क्षेत्रों का मध्यवर्ती प्रदेश है जो जैनों के अधिकांश तीर्थकरों की जन्मस्थली एवं कर्मस्थली रही है। भ. ऋषभदेव का उपदेश भी अर्धमागधी में माना जाता है। अतः कौशल के अयोध्या की भाषा भी अर्धमागधी क्षेत्र में समाहित होती है। वस्तुतः तीर्थंकरों के अनेक क्षेत्रों में विहार के कारण उनकी मागधी भाषा में अनेक उपभाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण हुआ होगा जिनमें विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रभाव भी सम्मिलित है। यह 'अरिया' के 'अरिहा' के रूप में परिवर्तित होने से स्पष्ट है । इसीलिए यह प्राकृत भाषा जनसामान्य के लिये बोधगम्य मानी जाती रही है । फलतः, अर्धा मागधी + शौरसेनी + अन्य भाषाऐं । = इसीलिए इसमें अनेक प्राकृत जन भाषाओं के लक्षण और शब्द पाए जाते हैं । इनका विवरण बालचन्द्र शास्त्री ने दिया है। फलतः इसे किसी एक विशिष्ट भाषा के नाम से सम्बोधित नहीं किया जा सकता अर्धमागधी भाषा का स्वरूप : कथ्य भाषा - प्राकृत भाषा इस भाषा के सम्बन्ध में अनेक स्वदेशी और विदेशी भाषा विज्ञानियों ने विचार किया है। सभी का मत है कि सामान्यतः भाषा दो प्रकार की होती है— (1) कथ्य जनभाषा और (2) साहित्यिक भाषा । जब कोई जनबोली बृहत्समुदाय के द्वारा या राजनीतिक रूप से मान्य होती है, तब वह भाषा कहलाती है । जब उस भाषा के माध्यम से साहित्य निर्माण होने लगता है, तब वही भाषा साहित्यिक भाषा बन जाती है। इसका स्वरूप जनबोली और भाषा से किंचित् परिष्कृत हो जाता है। प्रारम्भ में सभी भाषाएं जन- बोलियों के रूप में कथ्य रूप में ही पाई जाती हैं और उनका कोई साहित्य भी नहीं होता । लेकिन उनके अनेक परवर्ती रूप साहित्य में पाए जाते हैं । इन रूपों के आधार पर ही जनभाषाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। इन जनभाषाओं का कोई व्याकरण भी नहीं होता । इन्हें ही 'प्राकृत भाषा कहा जाता है। हमारे तीर्थंकरों ने इसी प्रकार की कथ्य जनभाषा - प्राकृत भाषा में देशनाऐं दी थीं । उनकी भाषा साहित्यिक नहीं थी, नहीं तो वह सर्वजन बोधगम्य कैसे हो सकती थी? नमिसाधु ने इस प्राकृत की परिभाषा ही व्याकरणादि संस्कारों से रहित वचन व्यापार के रूप में की है। इस वचन व्यापार की भाषा ही प्राकृत भाषा है। उनके अनुसार अर्धमागधी भाषा ही प्राकृत भाषा है जो देश, काल भेदों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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