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(306) : नंदनवन है । इसी प्रकार, कार्ल सागन ने भी कहा है कि विभिन्न धर्म नवपरिवर्तन के प्रति अरुचिशील होते हैं एवं बौद्धिक स्वतंत्रता के शत्रु हैं । उनका कथन है कि मनुष्य बिना धर्म के भी अच्छा नैतिक रह सकता है । संगठित धर्म तो यथास्थितिवादी होते हैं । अमरीका में 1999 में की गई एक शोध से पता चलता है कि: 1. उच्च शिक्षा जितनी अधिक होगी, धार्मिकता उतनी ही कम होगी । 2. आय जितनी अधिक होगी, धार्मिकता उतनी ही कम होगी।
यहां धार्मिकता से तात्पर्य अमूर्त तत्त्वों में विश्वास और भक्ति है। धर्म प्रायः अमूर्त तत्त्वों की सत्यता की परीक्षा करते हैं। इस क्षेत्र में अभी विज्ञान नहीं पहुंचा है। पश्चिमी विचारकों के ये निष्कर्ष परीक्षाप्रधानी जैन धर्म पर लागू नहीं होते। इसमें व्याख्याओं एवं परिवर्तनों के प्रति रुचि रही है। इसने अन्यों द्वारा आरोपित व्यक्तिवादी चरित्र और सिद्धान्तों को सामाजिक एवं वैश्वीय रूप दिया है। यह अपनी प्राचीन मान्यताओं के परीक्षण एवं परिवर्धन के प्रति जागरूक है। यह तथ्य आगे दिये विवरणों से स्पष्ट हो जायेगा । आगम या आगम-कल्प ग्रन्थों का स्वरूप
जैन समग्रतः अनेकान्तवादी हैं और व्यवहारतः नयवादी भी हैं । धवला के अनुसार छह निक्षेपों के आधार पर अथवा यदि नाम और स्थापना को छोड़ दिया जाय, तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार वस्तु तत्त्व का वर्णन किया जाता है । जीव तत्त्व के विवरण में भाव भी एक आधार होता है। इस दृष्टि से हम देखें, तो हमारे आगम-कल्प ग्रंथों का विवरण निम्न रूप में दिया जा सकता है - 1. द्रव्य दृष्टि से • : आरातीय आचार्यों द्वारा रचित है । 2. क्षेत्र दृष्टि से : मगध (पाटलिपुत्र), मथुरा, हाथीगुंफा या बलभी में संकलित हुए हैं। 3. काल दृष्टि से : इनका ग्रंथ-संकलन काल 360 ई.पू. से 453-63ई.पू. के बीच है
और अर्थ की दृष्टि से अनादि की मान्यता के बावजूद भी, ये पार्श्व (877-777 ई.पू.) और महावीर (599-527 ई.पू.) के काल में दिव्य-ध्वनित किये गये थे । उत्तरवर्ती ग्रंथ भिन्न-भिन्न समयों में
लिखे गये हैं । 4. भाव की दृष्टि से : इनके मूल रूप में विभिन्न वाचनाओं के समय परिवर्तन किया
जाता रहा है। पार्श्वनाथ की सचेल-अचेल धारणा महावीर-युग में अचेल में परिणित हुई। पंचाचार आचार-त्रिक में सक्षिप्तीकृत हुआ। अनेक अवधारणायें जुड़ीं। संकलित या संशोधित आगमों को किसी ने मान्य किया और किसी ने अमान्य किया। किसी ने 11 अंगों का लोप बताया, तो किसी ने मात्र दृष्टिवाद का। शास्त्री ने कहा कि दिगम्बरों को संकलन की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई क्योंकि सार्वजनिकता की धारणा आगमों पर लागू नहीं होती। पर मूल रचयिता की दृष्टि से, ये पार्श्वनाथ एवं महावीर के तीर्थकर भव में निर्मित हुए थे।
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