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________________ आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : (305) विद्यमान आगम-कल्प ग्रंथों के विवरणों के सन्दर्भ में पूर्वापर अविसंवादिता की दृष्टि से विचार करना चाहिये। ___ यह वैज्ञानिक युग है और हम अपने धर्म की वैज्ञानिकता तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति को प्रसारित भी करते हैं। वर्तमान में सभी साधु एवं गुरुजन विज्ञान और धर्म-समन्वय के उपदेश भी देते हैं। पर विज्ञान की अपनी सीमा है। वह अभी भौतिक जगत् और जीवन से सम्बन्धित घटनाओं की ही. आंशिक या समग्र व्याख्या करने का प्रयोगबद्ध प्रयत्न करता है। अध्यात्म जगत् अभी उसकी सीमा से परे है, यद्यपि उस क्षेत्र में यह प्रवेश करता प्रतीत होता है। ___ आजकल क्या, प्रत्येक युग में परम्परावादी और मध्यमार्गी परम्परायें रही हैं। पहली परम्परा चिर-प्रतिष्ठित मान्यताओं को त्रैकालिक मानती रही है और दूसरी परम्परा मान्यताओं और विचारों में युगानुकूल परिवर्तन की पोषक रही है। यह सही है कि मध्यमार्गी परम्परा के अनुयायियों की संख्या कम रही है और उन्हें परम्परावादियों के आकोश का भाजन भी बनना पड़ता है। पश्चिम में तो मध्ययुग में, और अभी पर्याप्त मात्रा में, यह आक्रोश विकराल रहा है, पर भारत में ऐसी स्थिति नहीं आई। इसका कारण यह है कि प्रारम्भ के आचार्य तो, नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार, श्रुतधर सारस्वत और प्रबुद्ध कोटि के थे और उन्होंने जैन मान्यताओं को युगानुरूप बनाये रखने का प्रयत्न किया। उसके उत्तरवर्ती काल में परम्परापोषक आचार्यों और भट्टारकों की परम्परा चली। उन्हें विदेशी आक्रमणों राजकीय विरोधों तथा साहित्य भण्डारों/मंदिरों के ध्वंसों के कारण अन्तर्मुखता धारण करनी पड़ी। उन्होंने "जो है सा' उसके परिरक्षण की वृत्ति अपनाई। इससे आज हमारा शास्त्रीय ज्ञान दसवीं-ग्यारहवीं सदी की मान्यताओं, प्रवृत्ति और वर्धमान ज्ञान-क्षितिज के प्रति न केवल उदासीन है, अपितु शास्त्रीय विवरणों को ही वरीयता देता है। यह जैन धर्म की वैज्ञानिकता को पोषित करने की प्रवृत्ति और मानसिकता के प्रतिकूल है। इसके बावजूद परम्परावादियों की तुलना में, जैनों में प्रत्येक युग में प्रगतिशील आचार्य और विद्वान भी हुए हैं। जिन्होंने धार्मिक सिद्धान्तों एवं आचार-विचारों में युगानुकूल सामंजस्य बनाये रखने का प्रयत्न किया। इनमें पूर्व में दिये गये आचार्य के अतिरिक्त, पुराण युग के अनेक आचार्यजिनसेन, लोंकाशाह, तारणस्वामी, ब्र.शीतल प्रसाद, स्वामी सत्यभक्त, अमर मुनि, आचार्य तुलसी, कानजी स्वामी अदि प्रमुख हैं। इनके कारण जैन धर्म में वैज्ञानिकता एवं आधुनिकता के बीज पुष्पित होते रहें हैं। पश्चिमी विचारकों ने ईसाई जगत् के उदाहरण से कुछ निष्कर्ष निकाला है जिनमें एक यह है कि धर्म आधुनिकता और वैज्ञानिकता का विरोधी है । उन्होंने इस निष्कर्ष को भारतीय धर्मों पर भी प्रयुक्त किया है, जो सही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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