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________________ (304) : नंदनवन तपोबल की शक्ति के भ्रम में दिगम्बरों ने जिनवाणी के संकलन की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं किया । इसके साथ ही जिन्होंने यह संकलन किया, उस पर प्रश्नचिन्ह भी लगा दिया । इस परिस्थिति में आचार्य धरसेन को अवशिष्ट अंश के लोप की शंका हुई, तो उन्होंने दो शिष्यों को, जो उन्हें स्मरण था, आगमज्ञान दिया जिससे दिगम्बरों के प्रथम आगम-कल्प ग्रन्थ लिखे गये। इसके उत्तरवर्ती काल में अनेक ग्रन्थ रचे गये । ये सभी आचार्य आरातीय (दूरवर्ती) कम से कम महावीर निर्वाण से 683 (वर्ष दूर) कहे जाते हैं । उनके रचे ग्रन्थों को ही हम उपचार से जिनवाणी कहते हैं। वस्तुतः वे 'आचार्यवाणी' हैं। उन्हें जिनवाणी मानने के आधारों का मूल्यांकन किया जा सकता है । इसके आधार पर आज हमें विभिन्न शास्त्रों में अनेक तथ्य प्राप्त होते हैं जो उपरोक्त आधारों पर खरे नहीं प्रतीत होते हैं । साथ ही, ऐसा भी लगता है कि ये शास्त्र अपने युग के ज्ञान-विज्ञान को प्रस्तुत करते हैं। इसीलिये उनमें आधुनिक भौतिक जगत् में आविष्कृत अनेक विवरणों का संकेत भी नहीं है। इस सम्बन्ध में अनेक सूचनायें तुलसी प्रज्ञा, 23-4, पं. . जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रंथ एवं "साइंटिफिक कन्टेंट्स इन प्राकृत केनन्स" में दी गई है । वहां विसंवादिता के 31 विवरण दिये गये हैं। इनमें (1) महावीरोत्तर 683 वर्ष की. आचार्य परम्परा की उपलब्ध विविधता (2) शास्त्रों में पूर्वापर विरोध, (3) भौतिक जगत् के विवरणों में विसंगतियाँ तथा (4) आचार सम्बन्धी विसंगतियाँ समाहित हैं। इसके साथ ही, जिनवाणी को 'सर्वज्ञता' के सिद्धान्त के आधार पर हमने 'स्थिरतथ्यी माना है, उसके परे कोई ज्ञान ही नहीं है। निरन्तर परिवर्तनशील जगत् एवं जीव में स्थिरतथ्यता की बात भी आज के युग में गले नहीं उतरती। ज्ञान तो प्रवाहशील होता है। उनमें ऐतिहासिक तथ्यता की स्वीकृति अधिक रुचिकर होगी। इसीलिये उसके विवरणों को बिना परीक्षा किये, वैज्ञानिकता भी प्राप्त नहीं हो पाती । उत्तराध्ययन भी कहता है कि प्रज्ञा से धार्मिक सिद्धान्तों की समीक्षा करनी चाहिये। हमारे चौथी-पांचवीं सदी के और उसके उत्तरवर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द आदि आचार्यों ने परीक्षाप्रधानी बनकर इसे वैज्ञानिकता प्रदान करने का प्रयास किया है। सिद्धसेन ने अपनी द्वात्रिंशिका में कहा है कि मैं पूर्वजों के द्वारा स्थापित सिद्धांतों व व्यवस्थाओं को तथैवेति मानने का पक्षधर नहीं हूँ। मैं उनकी परीक्षा करूँगा, चाहे कोई माने या न माने। यही कारण है कि विभिन्न शास्त्रों के विवरणों में समय-समय पर पिरवर्तन, संवर्धन, संशोधन, नामान्तरण, क्रम-परिवर्तन तथा विलोपन आदि की प्रक्रियायें अपनाई गई हैं। ज्ञान के विकास का राजमार्ग इन्हीं प्रक्रियाओं से अधिक व्यापक और उपयोगी होता है। फलतः हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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