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________________ आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (297) प्रमाण वनस्पतिकायिक जीवों से विशेष अधिक होता है। दोनों कथन परस्पर विरोधी हैं। यही नहीं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव और सूक्ष्म निगोदजीव वस्तुतः एक ही हैं, पर इनका निर्देश पृथक-पृथक् है। (ii) भागाभागानुगम अनुयोगद्वार के सूत्र 34 की व्याख्या में विसंगतियों के लिये वीरसेन ने सुझाया है कि सत्यासत्य का निर्णय आगम निपुण लोग ही कर सकते हैं । (2) भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में असंगत चर्चायें : (1) तीन वातवलयों का विस्तार यतिवृषभ और सिंहसूर्य ने अलग-अलग दिया है : (अ) त्रिलोकप्रज्ञप्ति में क्रमशः 11/ 2, 11/6, 11/2 कोश विस्तार है। (ब) लोक विभाग में क्रमशः 2, 1 एवं 1575 धनुष विस्तार है । इसी प्रकार, सासादन गुणस्थानवी जीव के पुनर्जन्म के प्रकरण में यतिवृषभ नियम से उसे देवगति ही प्रदान करते हैं जब कि कुछ आचार्य उसे एकेन्द्रियादि जीवों की तिर्यंच गति भी प्रदान करते हैं। उच्चारणाचार्य और यतिवृषम के विषय के निरूपण के अन्तरों को वीरसेन ने जयधवला में नयविवक्षा के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न किया है।" इसी प्रकार, उच्चारणाचार्य का यह मत कि बाईस प्राकृतिक विभक्ति के स्वामी चतुर्गतिक जीव होते हैं, यतिवृषभ के केवल मनुष्य-स्वामित्व से मेल नहीं खाता । भगवतीआराधना में साधुओं के 28 व 36 मूलगुणों की चर्चा के समय कहा है "प्राकृत टीकायां तु अष्टविंशति गुणाः । आचारवन्वायश्चाष्टौ-इति षत्रिशत्।" इसी ग्रन्थ में 17 मरण बताये हैं पर अन्य ग्रन्थों में इतनी संख्या नहीं बताई गई है।18 शास्त्री ने बताया है कि 'षट्खंडागम' और 'कषायप्राभृत' में अनेक तथ्यों में मतभेद पाया जाता है । इसका उल्लेख 'तन्त्रान्तर' शब्द से किया गया है। उन्होंने धवला, जयधवला एवं त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक मान्यता भेदों का भी संकेत दिया है। इन मान्यता भेदों के रहते इनकी प्रामाणिकता का आधार केवल इनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ही माना जायेगा। आचार-विवरण सम्बन्धी विसंगतियां __शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के समान आचार-विवरण में भी विसंगतियां पाई जाती हैं। इनमें से कुछ का उल्लेख यहां किया जा रहा है। श्रावक के आठ मूलगुण : श्रावकों के मूलगुणों की परम्परा बारह व्रतों से अर्वाचीन है । फिर भी, इसका समन्तभद्र से तो प्रारम्भ माना ही जा सकता है। इनकी आठ की संख्या में किस प्रकार समय-समय पर परिवर्धन एवं समाहरण हुआ है, यह देखें: 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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