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________________ (296) : नंदनवन सबसे पहले हम मूल ग्रन्थों के विषय में ही सोचें । सारणी 2 से ज्ञात होता है कि कषायप्राभृत, मूलाचार एवं कुन्दकुन्द साहित्य के भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने तत्तत् ग्रन्थों में सूत्र या गाथा की संख्याओं में एकरूपता ही नहीं पाई । इसके अनेक रूप में समाधान दिये जाते हैं । इस भिन्नता का सद्भाव ही इनकी प्रामाणिकता की जांच के लिये प्रेरित करता है। ये अतिरिक्त गाथायें कैसे आईं? क्यों हमने इनको भी प्रामाणिक मान लिया? यही नहीं, इन ग्रन्थों में अनेक गाथाओं का पुनरावर्तन है जो ग्रन्थ निर्माण प्रक्रिया से पूर्व परम्परागत मानी जाती हैं। ये संघभेद से पूर्व की होने के कारण अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी पाई जाती हैं। गाथाओं का यह अन्तर अन्योन्य विरोध तो माना ही जायेगा । कुन्दकुन्द साहित्य के विषय में तो यह और भी अचरजकारी है कि दोनों टीकाकार लगभग 100 वर्ष के अन्तराल में ही उत्पन्न हुए । सारणी 2 : कुछ मूल ग्रन्थों की गाथा / सूत्र संख्या ग्रन्थ गाथा संख्या, गाथा संख्या, प्रथम टीकाकार द्वितीय टीकाकार 1. कषाय पाहड़ 180 233 (जय धवला), 245 2. कषाय पाहुड़चूर्णि 8000 श्लोक (ति.प.) 7000 " 3. सत्प्ररूपणा सूत्र 100 4. मूलाचार 1252 (वसुनंदि) 1409 (मेघचंद्र) 5. समयसार 415 (अमृतचंद्र) 445 (जयसेन) 6. पंचास्तिकाय 173 7. प्रवनसार 8. रयणसार 155 - 167 - शास्त्रो में सैद्धान्तिक चर्चाओं के विरोधी विवरण यह विवरण दो शीर्षकों में दिया जा रहा है : (1) एक ही ग्रन्थ में असंगत चर्चा - मूलाचार के पर्याप्ति अधिकार की गाथा 79-80 परस्पर असंगत है गाथा 79 गाथा 80 सौधर्म स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु 5 पल्य 5 प. ईशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु 7 पल्य 5 प. सानत्कुमार स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु 9 प. 17 प. धवला के दो प्रकरण : (i) खुद्दक बन्ध के अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में वनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण सूत्र 74 के अनुसार सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों से विशेष अधिक होता है जबकि सूत्र 75 के अनुसार सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों का 177 191 275 317 " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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