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________________ आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (295) सैद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी स्वीकृति उपरोक्त तथा अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है कि समय-समय पर हमने अपनी पूर्वगत अनेक सैद्धान्तिक मान्यताओं के संशोधनों को स्वीकृत किया है जिनमें कुछ निम्न हैं : (1) हमने विभिन्न तीर्थंकरों के युग में प्रचलित त्रियाम्, चातुर्याम और पंचयाम धर्म के परिवर्धन को स्वीकृत किया । (2) हमने विभिन्न आचार्यों के पंचाचार, चतुराचार एवं रत्नत्रय के क्रमशः न्यूनीकरण को स्वीकत किया । (3) हमने प्रवाह्यमान ( परम्परागत) और अप्रवाह्यमान (संवर्धित) उपदेशों को भी मान्यता दी ।" (4) अकलंक और अनुयोगद्वार सूत्र ने लौकिक संगति बैठाने के लिये प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिये जिनके विरोधी अर्थ हैं : लौकिक और पारमार्थिक। इन्हें भी हमनें स्वीकृत किया और यह अब सिद्धान्त है। (5) न्याय विद्या में 'प्रमाण' शब्द महत्त्वपूर्ण है। इसकी चर्चा के बदले उमास्वातिपूर्व साहित्य में ज्ञान और उसके सम्यक्त्व या मिथ्यात्व की ही चर्चा है। 'प्रमाण' शब्द की परिभाषा भी "ज्ञानं प्रमाणं' से लेकर अनेक बार परिवर्धित हुई है । इसका विवरण द्विवेदी ने दिया है । 4 (6) हमने अर्धपालक और यापनीय आचार्यों को अपने गर्भ में समाहित किया जिनके सिद्धान्त तथाकथित मूल परम्परा से अनेक बातों में भिन्न पाये जाते हैं। इस कोटि के अन्य उदाहरण एक अन्य लेख में दिये गये हैं। ये तो सैद्धान्तिक परिवर्धनों की सूचनायें हैं । ये हमारे धर्म के आधारभूत तथ्य रहे हैं । इन परिवर्धनों के परिप्रेक्ष्य में हमारी शास्त्रीय मान्यताओं की अपरिवर्तनीयता का तर्क कितना संगत है, यह विचारणीय है। मुनिश्री ने इस समस्या के समाधान के लिये शास्त्र और ग्रन्थ की स्पष्ट परिभाषा बताई है । उनके अनुसार, केवल अध्यात्म विद्या ही शास्त्र है जो अपरिवर्तनीय है, उनमें विद्यमान अन्य वर्णन ग्रन्थ की सीमा में आते हैं और वे परिवर्धनीय हो सकते हैं । स्वामी सत्यभक्त ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है। शास्त्रों में पूर्वापरविरोध ___ शास्त्रों की प्रमाणता के लिये पूर्वापर-विरोध का अभाव भी एक प्रमुख बौद्धिक कारण माना जाता है। पर यह देखा गया है कि शास्त्रों के अनेक सैद्धान्तिक विवरणों में परस्पर विरोध तो है ही, एक ही शास्त्र के विवरणों में भी विसंगतियाँ भी पाई जाती हैं। परम्परापोषी टीकाकारों ने ऐसे विरोधी उपदेशों को भी ग्राह्य बताया है। यह तो उन्होंने स्वीकृत किया है कि विरोधी या भिन्न मतों में से एक ही सत्य होगा, पर वीरसेन, वसुनन्दि जैसे टीकाकार और छद्मस्थों में सत्यासत्य निर्णय की विवेक क्षमता कहां? इन विरोधी विवरणों की ओर अनेक विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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