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________________ (294) : नंदनवन (3) कुन्दकुन्द के एकार्थी पांच अस्तिकाय, छ: द्रव्य, सात तत्त्व और नौ पदार्थों की विविधता को दूर कर उन्होने सात तत्त्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया। (4) उमास्वाति ने अद्वैतवाद या निश्चय-व्यवहार दृष्टियों की वरीयता पर माध्यस्थ भाव रखा। (5) उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण बताकर जैन विद्याओं में सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया। (6) उमास्वाति ने श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं पर मौन रखा। सम्भवतः इसमें उन्हें पुनरावृत्ति लगी हो। (7) उन्होंने सल्लेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों से पृथक् माना। (8) उन्होंने सप्त-तत्त्वों में बन्ध-मोक्ष का कुन्दकुन्द स्वीकृत क्रम अमान्य कर .' बन्ध को चौथा और मोक्ष को सातवां स्थान दिया। , इनमें अन्य अनेक बिन्दु और भी परिगणित किये जा सकते हैं। शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है। परन्तु लगता है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने तत्कालीन समग्र साहित्य में व्याप्त चर्चाओं की विविधता देखकर अपना स्वयं का मत बनाया था । यही दृष्टिकोण वर्तमान में अपेक्षित है । उमास्वाति के समान अन्य आचार्यों ने भी सामयिक समस्याओं के समाधान की दृष्टि से परम्परागत मान्यताओं में संयोजन एवं परिवर्धन आदि किये हैं । इसलिये धार्मिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्त, चर्चायें या मान्यतायें अपरिवर्तनीय हैं, ऐसी मान्यता तर्कसंगत नहीं लगती । विभिन्न युगों के ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिंसादि पांच नीतिगत सिद्धान्तों की परम्परा भी महावीर-युग से ही चली है। इसके पूर्व, भगवान ऋषभ की त्रियाम (समत्व, सत्य, स्वायत्तता) एवं पार्श्वनाथ की चातुर्याम परम्परा थी। महावीर ने ही अचेलकत्व को प्रतिष्ठित किया। महावीर ने युग के अनुरूप अनेक परिवर्तन कर परम्परा को व्यापक बनाया। व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परम्परापोषण ही माना जाना चाहिये। यद्यपि आज के अनेक विद्वान इस निष्कर्ष से सहमत नहीं प्रतीत होते पर परम्परायें तो परिवर्धित और विकसित होकर ही जीवन्त रहती हैं। वस्तुतः देखा जाय, तो जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उसका विद्वत्-जगत् के लिये कोई अर्थ ही नहीं है। बीसवीं सदी में इस शब्द की सही परिभाषा देना ही कठिन है । भ. ऋषभ को मूल माना जाय या भ. महावीर को? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वयं यह प्रदर्शित करती है कि यह व्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार है। हॉ, बीसवीं सदी के कुछ लेखक" समन्वय की थोड़ी बहुत सम्भावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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