SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (291) प्रयत्न अवश्य किया जाता है कि इन व्याख्याओं से अधिकाधिक संगतता आये चाहे इसके लिये कुछ खींचतान ही क्यों न करनी पड़े। अनेक विद्वानों की यह धारणा सम्भवतः उन्हें अरुचिकर प्रतीत होगी कि अंग- साहित्य का विषय युगानुसार परिवर्तित होता रहता है। वस्तुतः पोषण का अर्थ केवल संरक्षण ही नहीं, संवर्धन भी होता है। जैन शास्त्रों के काकदृष्टीय अध्ययन से ज्ञात होता है कि शास्त्रीय आचार विचार की मान्यतायें नवमी-दशमीं सदी तक विकसित होती रही है। इसके बाद इन्हें स्थिर एवं अपरिवर्तनीय क्यों मान लिया गया, यह शोधनीय है। शास्त्री का मत है कि परम्परा - पोषक वृत्ति का कारण सम्भवतः प्रतिभा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता माना जा सकता है। पापभीरुता भी इसका एक सम्भावित कारण हो सकती है। इस स्थिति ने समग्र भारतीय परिवेश को प्रभावित किया है । शास्त्री' ने आरातीय आचार्यों को श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध परम्परापोषक एवं आचार्यतुल्य कोटियों में वर्गीकृत किया है। इनमें प्रथम तीन कोटियों के प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक आचार्य ने अपने युग में परम्परागत मान्यताओं में युगानुरूप नाम, भेद, अर्थ और व्याख्याओं में परिवर्धन, संशोधन तथा विलोपन कर स्वतंत्र चिन्तन का परिचय दिया है। इनके समय में ज्ञानप्रवाह गतिमान रहा है । इस गतिमत्ता ने ही हमें आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दृष्टि से गरिमा प्रदान की है। हम चाहते हैं कि इसी का आलम्बन लेकर नया युग और भी गरिमा प्राप्त करे। इसके लिये मात्र परम्परापोषण की दृष्टि से हमें ऊपर उठना होगा। आचार्यों की प्रथम तीन कोटियों की प्रवृत्ति का अनुसरण करना होगा। उपाध्याय अमर मुनि ने भी इस समस्या पर मन्थन कर ऐसी ही धारणा प्रस्तुत की है। हम इस लेख में कुछ शास्त्रीय मन्तव्य प्रकाशित कर रहें हैं जिनसे यही मन्तव्य सिद्ध होता है । आचार्यों और ग्रन्थों की प्रामाणिकता हमनें जिनसेन के 'सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः' के रूप में आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों की प्रामाणिकता की धारणा स्थिर की है । पर जब विद्वज्जन इनका समुचित और सूक्ष्म विश्लेषण करतें हैं, तो इस धारणा में सन्देह उत्पन्न होता है एवं सन्देह निवारक धारणाओं के लिये प्रेरणा मिलती है । सर्वप्रथम हम महावीर की आचार्य परम्परा पर ही विचार करें। हमें विभिन्न स्रोतों से महावीर निर्वाण के पश्चात् 683 वर्षों की आचार्य परम्परा प्राप्त होती है। इसमें कम-से-कम चार विसंगतियां पाई जाती हैं। दो का समाधान जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से होता है, पर अन्य दो यथावत् बनी हुई हैं : (1) महावीर के प्रमुख उत्तराधिकारी गौतम गणधर हुए। उसके बाद और जम्बूस्वामी के बीच में लोहार्य और सुधर्मा स्वामी के नाम भी आते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy