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________________ (292) : नंदनवन यह तो अच्छा रहा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ने स्पष्ट रूप से सुधर्मा स्वामी और लोहार्य को अभिन्न बताकर यह विसंगति दूर कर दी और तीन ही केवली रहे। (2) पांच श्रुतकेवलियों के नामों में भी अन्तर है। पहले ही श्रुतकेवली कहीं 'नन्दी' हैं, तो कहीं 'विष्णु' कहे गये हैं। इन्हें विष्णुनंदि मानकर समाधान किया गया है। शायद यहां 'एक देश को सर्वदेश मान लिया गया है। (3) धवला में सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु एवं लोहाचार्य को केवल एक आचारांगधारी माना है । जबकि प्राकृत पट्टावली में इन्हें कमशः 10, 9, 8 अंगधारी माना है। इस प्रकार, इन चार आचार्यों की योग्यता विवादग्रस्त है। (4) 683 वर्ष की महावीर परम्परा में एकांगधारी पुष्पदंत-भूतबलि सहित पांच आचार्यों (118 वर्ष) को समाहित किया गया है और कहीं उन्हें छोड़कर ही 683 वर्ष की परम्परा दी गई है जैसा सारणी 1 से स्पष्ट है। एक सूची में 10, 9, 8 अंगधारियों के नाम ही नहीं हैं। फलतः आचार्यों की परम्परा में ही नाम, योग्यता, कार्यकाल और संख्या में भिन्नता है । यह परम्परा महावीर-उत्तरकालीन है। महावीर ने विभिन्न युग के आचार्यों के लिये भिन्न-भिन्न परम्परा के लेखन की दिव्यध्वनि विकीर्ण न की होगी । आधुनिक दृष्टि से इन विसंगतियों के दो कारण सम्भव हैं : (अ) प्राचीन समय के विभिन्न आचार्यों और उनके साहित्य के समुचित संचरण एवं प्रसारण की व्यवस्था और प्रक्रिया का अभाव । (ब) उपलब्ध प्रत्यक्ष, अपूर्ण या परोक्ष सूचनाओं के आधार पर परम्परापोषण का प्रयत्न । नये युग में ये ही कारण प्रामाणिकता परं प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। फिर, " यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि कौन-सी सूची प्रामाणिक है? सारणी 1: धवला और प्राकृत पट्टावली की 683 वर्ष-परम्परा 3- केवली 62 वर्ष 62 वर्ष 5- श्रतुकेवली 100 वर्ष 100 वर्ष * 683 वर्ष की आचार्य परम्परा में (1) कहीं नौ दश पूर्वियों के नाम हैं, तो कहीं ग्यारह नाम हैं (2) कहीं दो भद्रबाहु के नाम हैं, तो बसंतराज के अनुसार, श्रवण बेलगोला के एक शिलालेख के आधार पर तीन भद्रबाहु (अन्तिम लोहार्य के पूर्व) के नाम हैं और (3) कहीं 28 नाम हैं, तो कहीं 31 नाम हैं, तो कहीं तैंतीस नाम हैं। 29 इस परम्परा में लोहार्य (अंतिम) को आर्यरक्षित और धरसेन से अभिन्न बताने की विचारणीय चर्चा भी चली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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