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________________ 394 Padmanabh S. Jaini Jambu-jyoti द्रौपदी सती कौ कहै भइ पंच भरतारी अंधबंध भारीकरि संकट मै फहै है ।। साची वात झूठी कहै वस्तु को न भेद लहै हठ रीति गहि रहै मिथ्यावात कहै है ॥७१।। कोउ मुनि कंध परि पंथ मै गुरु कौ लिए चलें जात केवली भयो है सरहै है। कहै है जमाइ वीरनाथ को जमाली नामा वीर है कुमारौ सुनि लरने कौ खहै है ।। कबक ध्रवक करि केवली कपिल नाचौ मूरख रिझावने को ऐसी मानि रहै है। सांची वात झूठी कहै वस्तु को न [भेद] लहै हठ रीति गहि रहै मिथ्यावात कहै है ॥७२॥ छपय कहै बहुत्तरि सहस भइ वसुदेव बधूगन धनुष पंच सै उच्च बाहुबलि कहिहि धर्यो तन । सूद्रजाति घरि असन करत मुनि दोष न पावै देवमनुष्यणी भोग भोगवै हि सुरत वधावै(?) ॥ एक गरभ मांहि सुलसा धरै सुत बत्तीस बने नहि(?) पहिलै त्रिपिष्ट वसुदेव की नानति(?) उतपति मानहि ॥७३।। मानै वीर विहार अनारज देस भूमि पर कहिहि मलेछ चतुर्थकाल सारे हुये(?) भरि(?) । देवलोक तै चारि कोस कौ कहि अवधारै प्राण जात व्रतभंग करत नहि पाप विचारै ।। उपवास मांहि ओषध लभत व्रती न धारै दोष मल चौसठि हजार नारी राखै चक्रवति धरि तन नवल(?) ||७४॥ समोसरण जिन नगन नांहि दीसै परवानैं(?) अविक्र तन(?) नभवस्त्र राग कारन सरधानहि। लाठी राख जती कहे अरु कर्ण वधावहि(?) जग(गज) उपरि ही मुगति गइ मरुदेवि बतावहि ।। नारी अगम्य दुरधर कठिन पंच महाव्रत पग धरहि। न हि लहहि दोषबलहीन मुनि वारवार भोजन करहि ।।७५।। गीता छन्द दरवित्त कि क्रिया बिन भावलिंग गृहस्थ केवल पद धरे । चंडालादिक जाति तहि मुनि मुकति तनव(?) बसि करै।। आभर्ण सहित जिनेसप्रतिमा रागकारण मानते। अनमिल बखानहि और मानहि कलपना सरधान ते ॥७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006503
Book TitleJambu Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages448
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size21 MB
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