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अनु. विषय
पाना नं.
॥अथ प्रश्वभ हैश ॥
१ यतुर्थ शझे साथ प्रश्वभ देशठा सम्मन्ध-न्थन । ११४ २ प्रथम सुत्रमा अवतरा, प्रथम सुत्र और छाया।
૧ ૧૪ उ मायार्थ महाराण छे सभान निर्भस मोर अक्षोल्य होर निर्भय हो वियरते हैं।
૧ ૧૪ ४ द्वितीय सुत्रमा अवतरा, द्वितीय सुत्र और छाया।। ૧૧૭ ५ संशयात्मा शिष्य इभी भी समाधि नहीं पाता । छोर
गुहस्थ भी तीर्थराहिले उपहेशानुसार प्रवृति हरनेमें तत्पर रहता है और जोछ ठोसनगार भी । टिसी ज्ञानी मुनि द्वारा तीर्थराहि-उपदेशानुसार प्रवृत्ति-निभित्तप्रेरित शिष्य उभी भी निर्वि (E:जित) न होवे ।
૧ ૧૮ ६ तृतीय सुत्रछा अवतररारा, तृतीय सुत्र और छाया।
૧૨૦ ७ तीर्थ रोने फोछुछ छहा है वह सभी सत्य और निश्शंठ है। १२१ ८ यतुर्थ सुअठा अवतरा, यतुर्थ सुत्र और छाया ।
૧૨૧ ८ ठोछर श्रद्धालु विस्वासी भनुष्य, दीक्षा लेने माह मिनोऽत
छवाहि तत्त्वोंमें सन्देह होने पर शिनोऽत सभी तत्त्व यथार्थ ही है, अन्यथा नहीं हो सता इस प्रकार उन तत्त्वोंठो सभ्यभानता है और वह हमें भी उनको सर्वघा सभ्यही भानता है। छोछर सभ्य भाननेवाला माहमें असभ्यभानने लगता है। छो/२ असभ्य भाननेवाला माहमें सभ्यभानने लगता है ।छो/२ सभ्यभाननेवाला माहमें भी सर्वज्ञोऽत पदार्थो ठो सभ्य और असर्वज्ञोऽत पहार्थो को असभ्यही भानता है। पिन भगवान से उथित होने जारा से पार्थ सभ्यही है उनठो असभ्यभाननेवाला छो/ २ जाहमें भी भिथ्याष्टियों तत्त्वोंछो सभ्यभानता है और पिनोत तत्त्वोंठो असभ्य भानता है । सन्छेहरहित संयभियोंठो याहिये डिवह सन्देहशील लोगोंठो संयभमें उधोगशील होनेडी प्रेरणा छरें । छस प्रेरणा से संयम विरोधी ज्ञानावरशीय आधिोंडी परम्परा नष्ट हो जाती है। संयभाराधनमें सतत अग३ भुनियों के मायराठा मनुहारो । जाभावमें उभी भी भत पडो ।
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श्री. यासंग सूत्र : 3
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