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२५ मुनिर्भस्व३प हा धर्यालोयन र सर्वज्ञ-पिन सम्मन्धी
उपदेश, या संयभठो स्वीकार र रागद्वेषसे रहित हो
वीतराग हो जाते है। २६ तेरहवां सूत्र । २७ उर्भधारा रागद्वेषठा ज्ञानपूर्वट परित्याग उर, संसारी
लोगों जो विषयउषायों से व्याभोहित शन र, तथा विषयाभिलाष३प लोऽसंज्ञाछा वभन र भतिभान् भुनि संयभाराधनमें तत्पर रहे, संयभ ग्रह र पश्चात्ताप न छरे । देशसभाप्ति।
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॥छति प्रथभोटेशः ॥
॥अथ द्वितीयोटेशः॥
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१ प्रथम श साथ द्वितीय हैश हा सम्मन्धप्रतिपाहन,
और द्वितीय श ा प्रथम सूत्र । २ प्राशियों उपन्भवृद्धिष्ठा विचार रो; सभी प्राशियों छो सुजप्रिय होता है और दुःज अप्रिय होता है - स वस्तु छो सभओ। छस भ्रष्ठार विचार रनेवाला प्राशी अतिविध हो उर - निर्वाशपया वहां तऽ पहुंथानेवाले सभ्यग्दर्शन आदि परभ है मेसा मन हर घरभार्थी अनर सावध धर्भ नहीं उरता। उ द्वितीय सूत्र। ૪ ઇસ મનુષ્યલોકમેં બન્શન કે કારણભૂત મનુષ્યોં કે સાથ કે सम्बन्धों को छोडो । आरम्नवी मनुष्य मेहि-पारलौEि :जोंछो भोगनेवाले होते है। जाभभोगों में अभिलाषा रजनेवाले व अष्टविध धर्मो डा संयय पुरते रहते हैं और छाभभोगाहिन्य भर से संस्तिष्ट हो
वारंवार गर्भगाभी होते हैं। ५ तृतीय सूत्र। ६ अज्ञ भनुष्य भनोविनोहडे निमित्त प्राणियोंडा संहार र
आनंह भानता है । आलों-अज्ञों हा संग व्यर्थ है । उनडे संग से तो द्वेषष्ठी ही वृद्धि होती है।
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
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