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________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८१.३ निर्जरायाः कारणनिरूपणम् ५८३ प्रायश्चित्तादिष विधञ्च तपः विपावश्च शुभाशुभकर्मफलभोगरूपो रसोऽनुभावात्मको निर्जराहेतुः देशतः कर्मक्षय लक्षणाया निर्जरायाः कारणं वर्तते । एवं-कृतकर्मफलभोगरूपविपाकेन चोर्युक्तस्वरूपा निर्जरा भवति अनशन मायश्चित्तादिताः चिरसश्चितकर्मक्षयरूपां सिर्जरी करोति शुभाशुभकृतकर्मफल मोगरूपः सुखदुःखानुभवात्मको विपाकश्च तथाविध कर्मक्षयरूपा निजरां जरयति । अतएव-अनशनप्रायश्चित्तादिकं द्वादशविधं तपः कर्मफलभोगरूपो विपाकश्च कर्म क्षयलक्षणां निर्जरां प्रति हेतु भवति । उक्तश्चोत्तराध्ययने ३० अध्ययने ६ गाथायाम्-'एवं तु संजयस्सा विपावकम्मनिरासवे । भवकोडी संचियं कम्म तदसा निजरिस्तई ॥१॥ एवन्तु संयतस्यापि पापकर्मनिरास्रवे । भवकोटी सश्चितं कर्म तपसा निर्जीयते ॥१॥ इति, उक्तश्च व्याख्यामज्ञप्तौभेद होता है, जैसे ज्ञानावरण कर्म के बन्ध के कारण प्रदोष और निहनव आदि हैं, जब की असाता वेदनीय के बंध के कारण दुःखशोक आदि हैं शरीर एवं इन्द्रियों को तपाना रूप तप दो प्रकार का है-अनशन आदि छह बाह्य तप है और प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तर तप हैं। शुभाशुभ कर्मों का फल भोगना विपाक कहलाता है। इन दोनों कारणों से निर्जरा होती है । इस प्रकार कृत कर्मों के फलभोग रूप विपाक से कर्मक्षय रूप निर्जरा होती है। अनशन एवं प्रायश्चित्त आदि बारह प्रकार के तप से भी चिरसंचित कर्मों की निर्जरा होती है उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन ३०, गाथा ६ में कहा है___'इस प्रकार संयमशील पुरुष जब पाप कर्मों के आस्रव का निरोध कर देता है तो कोटी कोटी भवों में संचित कर्मों का तपस्या के द्वारा क्षय कर देता है ॥१॥ છ બાહાતપ છે અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ આભ્યન્તર તપ છે. શુભ શુભ કર્મોનું ફળ ભોગવવું વિપાક કહેવાય છે. આ બંને કારણોથી નિર્જરા થાય છે આવી રીતે કૃત કર્મોના ફળભાગ રૂપ વિપાકથીકર્મક્ષય રૂ૫ નિર્જરા થાય છે અનશન અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ બાર પ્રકારના તપથી પણ ચિર સંચિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે. ઉત્તરાધ્યાન સૂત્રના અધ્યયન ૩૦, ગાથા ૬ માં કહ્યું છેઆ રીતે સંયમશીલ પુરૂષ જ્યારે પાપકર્મોના આઅવને નિરોધ કરી દે છે તે કેટિ-કોટિ ભો માં સંચિત કમેને તપસ્યા દ્વારા ક્ષય કરી દે છે ૧ ૧ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૨
SR No.006386
Book TitleTattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages894
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size49 MB
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