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________________ ઘટ तत्त्वार्थ सूत्रे स्वाध्यायो - ध्यानं - ब्युत्सर्ग इत्येवं षड्वित्र माभ्यन्तरं तप उच्यते । मूलोत्तरगुणेषु कश्चिदतीचारचित्तं मलिनयतीति तत्छुद्धयर्थं प्रायश्चित्तं विहितं भवति, पापच्छेदकारित्वात् प्रायश्चित्तमुच्यते, प्रायो बाहुल्येन चित्तविशुद्धिहेतुत्वात् - मायचितम् १ विनीयते ज्ञानावरणादिकमष्टपकारकं कर्माऽपनीयते येन स विनयः २ श्रुतोपदेशेन व्यावृत्तः-शुमव्यापारवान् तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्यम् ३ निर्जरार्थं ग्लानादि सेवाकरणं वैयावृत्य मुच्यते ३ सुष्ठु मर्यादया काल वेलापरिहारेण, पौरुष्यापेक्षया वा मूलसूत्रस्याऽऽध्यायः पठनं स्वाध्याय उच्यते ४ ध्यायते चिन्त्यते वस्वनेने विध्वानम्, तच्वाऽऽर्त रौद्रे वर्जयित्वा धर्मशुक्लरूपम्, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये छह आभ्यन्तर तप कहलाते हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है । (१) प्रायश्चित्त-मूल या उत्तर गुणों में कोई अतिचार लगा हो और वह चित्त को मलीन बना रहा हो तो उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त किया जाता है । पाप का छेद (विनाश) करने के कारण वह प्रायश्चित्त कहलाता है । (२) विनय - जिसके सेवन से ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्म विनीत दूर होते हैं, वह विनय तप है । (३) वैयावृत्य - श्रुत के उपदेश के अनुसार शुभ व्यापारवान् का भाव या कर्म वैयावृश्य कहलाता है । अर्थात् अपने कर्मों की निर्जरा के अर्थ ग्लान मुनि की सेवा करना वैयावृस्य तप कहलाता है । (४) सु अर्थात् समीचीन रूप से - मर्यादा के साथ - कालवेला का વિનય, વૈયાવૃત્ય, સ્વાધ્યાય; ધ્યાન અને વ્યુત્સગ આ છ આભ્યન્તર તપ हेवाय छे. तेमनु स्व३५ मा प्रभाछे (૧) પ્રાયશ્ચિત્ત-મૂળ અથવા ઉત્તરગુગ્રામાં કોઇ અતિયાર લાગ્યા હોય તેમજ તે ચિત્તને કલુષિત બનાવતા હોય તા તેની શુદ્ધિ કાજે પ્રાયશ્ચિત્ત ५२वामां आवे छे, पायनो छेह (विनाश) ४२वाना) रखे ते प्रायश्चित्त उडेवाय छे. (२) विनय-नेना सेवनथी ज्ञानावरण आदि आठ प्रहारना अर्भ विनीतदूर थाय छे, ते विनय तय है. (૩) વૈશ્યાવૃત્ય- શ્રુતના ઉપદેશ અનુસાર શુભ વ્યાપારવાના ભાવ અથવા કમ વૈયાનૃત્ય કહેવાય છે અર્થાત્ પેાતાના કર્મોની નિર્જરા માટે ઉદાસીન મુનિની સેવા-શુશ્રુષા કરવી વૈયાવ્રત્ય તપ કહેવાય છે. (४) सु अर्थात् समीचीन उपथी - भर्याडा सहित - छान-वेजाना परिहार શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૨
SR No.006386
Book TitleTattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages894
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size49 MB
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