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________________ - २६ तत्यार्थ सूने भवति, एवं-रीत्या प्राणातिपाताऽनृतभाषण-स्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेषु दुःखमेव भावयतो व्रतिनः पश्चव्रतेषु स्थिरतालक्षण दृढता भवतीति भावः। उक्तञ्च-स्थाना ४ स्थाने २ उद्देशके २८२-सूत्र-'संवेगिणी कहा चउचिहा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगसंवेगिणी, परलोगसंवेगिणी, आयसरीर संवेगिणी परसरीरसंवेगिणी। णिध्वेयणी कहा चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगे दुचिपणा कम्मा इहलोगे दुहफलविषागसंजुत्ता भवंति १ इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मापरलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति२ परलोगे दुचिण्णा कम्मा इहलोगे दुह फलविवागसंजुत्ता भवति३ परलोगे दुचिचण्णा कम्मा परलोगे दुहविवागफलसंजुत्ता भवंत्ति४ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सहफलविभागसंजुत्ता भवति१ इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवाग संजुत्ता भवंति २ एवं चउभंगों' संवेगिनी कथा चतुविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा-इहलोगसंवेगिनी, परलोकसंवे. गिनी, आत्मशरीरसंवेगिनी, परशरीरसंवेगिनी, निर्वेदिनी कथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-इहलोके दुश्वीर्णानि कर्माणि-इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति? इहलोके दुश्चीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति २ इस प्रकार प्राणातिपात, मृषाभाषण, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में जो दुःख की ही भावना करता है वह व्रतो पांचों व्रतों में स्थिर होता है। स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के द्वितीय उद्देशक में कहा है____ 'संवेगिनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा-(१) इह लोक संवेगिनी (२) परलोकसंवेगिनी (३) स्वशरीरसंवेगिनी और (४) परशरीरसंवेगिनी। इसी प्रकार निर्वदनी को भी चार प्रकार की कही गई है, यथा-(१) इस लोक में किये गये खोटे कर्म इसी लोक में दुःख रूप फल विपाक को उत्पन्न करते हैं (२) इस लोक में किये गये खोटे कर्म આવી રીતે પ્રાણાતિપાત, મૃષાભાષણ, સ્તેય, અબ્રહ્મચર્ય અને પરિ. ગ્રહમાં, જે દુઃખની જ ભાવના કરે છે તે વ્રતી પાંચે વાતોમાં સ્થિર થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રના ચોથા સ્થાનના દ્વિતીય ઉદ્દેશકમાં કહ્યું છે 'सविना ४था यार प्रा२नी ४ाम मावी छ.२वी -(१) . सहनी (२) ५२ससवनी (3) स्वशरीरस वहिनी मन (४) ५२. શરીરસંવેદિની એવી જ રીતે નિર્વેદિની કથા પણ ચાર પ્રકારની કહેવામાં આવી છે જેવી કે-(૧) આ લેકમાં કરવામાં આવેલા ખોટા કર્મો આ જ લેકમાં દુઃખરૂપ ફળવિપાકને ઉત્પન કરે છે. (૨) આ લોકમાં કરેલા બેટાં श्री तत्वार्थ सूत्र : २
SR No.006386
Book TitleTattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages894
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size49 MB
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