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________________ २०६ तत्त्वार्थ सूत्रे जयं कुर्वन् अनुद्विग्नः सन् तिष्ठन् निषद्यापरीषहजयं कर्तुं शक्नोति - १० एवं - शय्या तावत् संसारः, पीठ - फलकादिव, कठोर-कोमलादिभेदेन उच्चावचो निम्नोन्नतः प्रतिश्रयोवा, धूलिपुञ्जधूसरितो बहुप्रकारको वा उच्यते, तत्रतिष्ठन् न कदाचिद् उद्विग्नो भवेत्, इत्येवं रीत्याऽनुद्वेगे सति शय्यापरीषहजयः सम्भवति - ११ आक्रोश स्ता द्-अभियवचनम् अनिष्टवचनं वा, उच्यते तत्खल्वप्रियवचनं सत्यं वर्तते तदा तत्र क्रोधकरगं नोचितम् अयं खल्वप्रियं ब्रुवन्- मां शिक्षयति नातः परमहमेवं करिष्यामि' इत्येवं प्रतिजानीत, यदितु तद्वचन सत्यमेव वर्तते तर्हि तत्र वचने वक्तरि वा सुतरां क्रोधो न कर्तव्यः यद्ययं सत्यमेवसे रहित स्थान में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतने में जो घबराता नहीं है, वह निषद्यापरीषह जय करने में समर्थ होता है । (११) शय्या अर्थात् विस्तर अथवा पीठ-फलक आदि या कोमल तथा कठोर होने मे अच्छा-बुरा, ऊंचा-नीचा उपाश्रय (स्थानक ) जिसमें धूल के पटल के पटल जमे हों ऐसी शय्या में ठहरा हुआ मुनि कदापि उद्विग्न न हो इस प्रकार उद्वेग न होने पर शय्यापारीबह विजय होता है। (१२) आक्रोश का अर्थ है अप्रियवचन, अनिष्ट वचन, डाट-फट कार से भरे हुए वचन । वह अप्रिय वचन अगर सत्य हों तो उन्हें सुनकर क्रोध करना उचित नहीं, उलटा ऐसा सोचना चाहिए कि अप्रिय वचन कह कर यह मुझे शिक्षा दे रहा है, 'इसके बाद मैं ऐसा नहीं करूंगा।' और यदि उसका बचन असत्य हो तो भी उस वचन पर यादकता पर क्रोध करना ही नहीं चाहिए। सोचना चाहिए कि अगर ઉપગેનેિ જીતવા માટે જે ગભરાતા નથી, તેજ નિષદ્યાપરીષદુજય પ્રાપ્ત કરવા માટે સમથ થાય છે. (૧૧) શય્યા ર્થાત્ પથારી અથવા પીઢ-ક્લક દિ અથવા કુમળા तथा भरणयां होवाथी सारा-नरसा, उया-नया स्थान ( उपाश्रय) प्रेमां ધૂળના થરના થર બાઝેલાં હાય એવી પથારીમાં સૂતેલાં મુનિએ દાપિ ઉદ્વિગ્ન થાવું નહી. આ પ્રકારે ઉદ્વેગ ન થવાથી શય્યાપરીષદ્ધવિજય થાય છે, (१२) आडोशना अर्थ हे अप्रियवयन, मनिष्टवयन, धाड-धभडी थी ભરેલાં વચન તે અપ્રિય વચન જો સત્ય હાય તા તેને સાંભળીને ક્રોધ કરવા વાજબી નથી બલ્કે એવું વિચારવુ જોઇ એ કે અપ્રિય વચન કહીને આ મને ઉપદેશ આપી રહ્યો છે. ‘આ પછી હું આવું કરીશ નહી... અને જો તેનુ વચન અસત્ય હાય તે પણ તે વચન ઉપર અથવા વકતા ઉપર ક્રોધ કરવા જ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૨
SR No.006386
Book TitleTattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages894
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size49 MB
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