SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ६९ मूलसूत्रम् — भाविंदियं दुविहं, लद्धीउवओगोय ॥१९॥ "3 छाया - भावेन्द्रियं द्विविधम्, लब्धिरुपयोश्च –” ॥१९॥ तत्त्वार्थदीपिका -- पूर्वसूत्रे - द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रियभेदेन इन्द्रियाणांद्वैविध्यंप्रतिपादितम्. सम्प्रति-भावेन्द्रियस्यद्वैविध्यं प्रतिपादयन् स्वरूपं प्ररूपयितुमाह - "भाविदियं दुविहं, लद्धी - उवओगोय-" इति । भावेन्द्रियम्- आत्मपरिणति विशेषस्वरूपं वर्तते, लब्धिः - उपयोगचेति । तत्र - लम्भनं ज्ञानावरणक्षयोपशम विशेषः । वस्तुतस्तु स्वं [ स्वकीयम् - ] इन्द्रियावरण कर्मक्षयोपशमजनितम्, गतिजात्यादिनामकर्मजनितम् मतिज्ञानावरणदर्शनावरणकर्मक्षयोपशमजनितं सामर्थ्यम्. इन्द्रियाश्रयकर्मोद यनिर्वृत्तं वा सामर्थ्यम् जीवस्यान्तरायकर्मक्षयोपशमाऽपेक्षया - इन्द्रियविषयोपभोगज्ञानशक्तिर्वालब्धिरुच्यते उपयोगस्तु - यत्सन्निधानात् - आत्तावक्ष्यमाणद्रव्येन्द्रियनिष्पत्तिं प्रतिव्यापृतो भवति, श्रोत्रो - पयोगादिभेदात् । तत्रोपयोगस्येन्द्रियफलत्वेऽपि कार्ये कारणोपचारात् तस्मिन्निन्द्रियत्वव्यपदेशः । लब्धिश्चपंचविधा, स्पर्शनेन्द्रियादिलब्धिमेदात् तत्र शीतोष्णादि स्पर्शपरिज्ञानसामर्थ्यरूपोपयोगात्मनाऽनमिव्यक्ता स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः एवम् - रसनेन्द्रियादिग्धयोऽपि बोध्याः ॥ १९ ॥ मूलसूत्रार्थ - 'भाविंदियं दुविहं इत्यादि ॥ १९ ॥ भावेन्द्रिय दो प्रकार की है-लब्धि और उपयोग ॥ १९ ॥ तत्त्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार की इन्द्रियाँ कही थीं । अब भावेन्द्रिय के दो भेद प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं - भावेन्द्रिय दो प्रकार की है--लब्धि और उपयोग । ज्ञानावरण कमें के एक विशिष्ट क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं । असल तो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से गति-जाति आदि नाम कर्म से तथा मतिज्ञानकरण एवं दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला सामर्थ्य अथवा इन्द्रियाश्रय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला सामर्थ्य या अन्तरायकर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से होने वाला इन्द्रिय विषय के उपयोग की और ज्ञान की शक्ति को लब्धि कहते हैं । जिसके सन्निधान से आत्मा आगे कही जाने वाली द्रव्येन्द्रिय की निष्पत्ति के प्रति व्यापार करता है, तत्कारणक आत्मा का परिणाम उपयोग कहलाता है । उपयोग श्रोत्रोपयोग आदि के भेद से पाँच प्रकार का है । यद्यपि उपयोग इन्द्रिय का फल ( कार्य ) है, मगर कार्य में कारण का उपचार करके उसे इन्द्रिय कहा है । स्पर्शनेन्द्रियलब्धि आदि के भेद से लब्धि भी पाँच प्रकार की है । शीत, उष्ण आदि स्पर्शो को जानने की शक्ति, जो उपयोग के रूप में अभिव्यक्त न हुई हो, वह स्पर्शनेन्द्रियलब्धि कहलाती है । इसी प्रकार रसनेन्द्रियलब्धि आदि भी समझ लेना चाहिए ॥ १९ ॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy