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________________ ६० तत्त्वार्थसूत्रे दीपिका—पूर्वं तावद् उपयोग लक्षणो जीव इत्युक्त तत्रोपयोगस्य भेदं स्वरूप पञ्च प्रतिपादयितुमाह-- "उवओगो दुविहो सागारो अणागारो य” इति उपयोगस्तावत् द्विविधः साकारः अनाकारश्चेति तत्र उपयोगो नित्यसम्बन्धः तथा च जीवस्य विवक्षितार्थपरिच्छेदरूपार्थग्रहणव्यापार उपयोग इत्यर्थः तत्र ज्ञानोपयोगः साकाराः दर्शनोपयोगश्च अनाकारो व्यपदिश्यते । तथा च ज्ञानस्येन्द्रियप्रणालिकया विषयाकारेण परिणतत्वात् साकारत्व व्यवहारो भवति, दर्शनस्य पुनः विषयाकारेण परिणतत्वाभावात् अनाकारत्व व्यपदेशो भवति तत्र ज्ञानोपयोगः अष्टविधः मति श्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानमत्यज्ञान श्रुताज्ञान विभङ्गज्ञान भेदात् दर्शनोपयोगश्चतुर्विधः चक्षुरचक्षुरवधि केवलदर्शनभेदात् । आकारेण विकल्पेन सह वर्तते इति साकारः सविकल्पो ज्ञानमुच्यत तद् विपरीतोऽनाकारो निर्विकल्पो दर्शनमुच्यते सप्रकारकं ज्ञानं सविकल्पकं साकारम् निष्प्रकारकं निर्विकल्पकं निराकारम् दर्शनमुच्यते किं स्विद् वर्तते इत्येवमालोचमात्रम् ।।सूत्र-१६॥ नियुक्तिः पूर्व जीवस्य उपयोगरूपं लक्षणमुक्तम् तत्र-उपयोगः उपलम्भः ज्ञानदर्शनयोः स्वविषयसीमाऽनुल्लंघनेन धारणमित्यर्थः, । यद्वा युञ्जनं योगः ज्ञानदर्शनयोः प्रवर्तनं विषयनिर्णयाभिमुखताः, उपजीवस्य समीपवर्ती योगः उपयोगो नित्यसंबन्धः, एवञ्चात्मनो विवक्षितार्थपरिच्छेदरूपार्थ ग्रहणव्यापारउपयोग इति ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है—(१)प्रतिज्ञान(२)श्रुतज्ञान(३)अवधिज्ञान(४)मनःपर्यवज्ञान (५)केवल ज्ञान(६)मत्यज्ञान(७)श्रुताज्ञान(८)विभंग ज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्श, अवधिधदर्शन और केवलदर्शन । जो आकार अर्थात् विकल्प से युक्त हो वह साकार या सविकल्पक ज्ञान कहा जाता है और जो उससे विपरीत हो वह अनाकार या निर्विकल्पक दर्शन कहलाता है अथवा जो उपयोग प्रकार युक्त हो—सविकल्प हो वह ज्ञान और जो प्रकार से रहित हो—निर्विकल्प हो वह दर्शन है । 'कुछ है' बस इतना मात्र ही प्रतीत होता है ॥१६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--उपयोग जीव का लक्षण है, यह पहले कहा गया था । उपयोग को उपलम्भ भी कहते हैं और उसका अभिप्राय है अपनी-अपनी सीमा का उलंघन न करके ज्ञान और दर्शन का व्यापार होना ! अथवा ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति या विषय के निर्णय के लिए अभिभिमु होना उपयोग है। उप अर्थात् जीव का सभीपवर्ती योग उपयोग कहलाता है। उसे नित्य संबंधी भी कहते हैं ।आशय यह निकला कि किसी भी पदार्थ को ग्रहण करने के लिए आत्मा का जो व्यापार होता है वह उपयोग कहलाता है। ___ उपयोग के भेद बतलाते हुए प्रकारान्तर से उसकी विशेषता का प्रतिपादन करते के लिए कहते हैं- उपयोग दो प्रकार का है-साकार और निराकार । ज्ञान साकार उप શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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