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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. त्रसजीवनिरूपणम् ५९ मिकाः ४ क्वचित् क्षायिकसभावात्श्रेणिकादिवद् गतिभेदतः पुनश्चौदयिकौपशामिक क्षायिक क्षायो पशमिकपारिणामिकाः दर्शनसप्तकरहितसकलमोहनीयापेशमाच्छेषकर्मक्षयोपशमादित्वे सति मनुष्यगतावेवोपशमश्रेणिसद्भावे सत्ये को भेदः एवम् , औदयिकक्षायिकपारिणामिका एक एव भङ्ग केवलिनो मनुष्यत्वकैवल्य जीवत्वप्राप्तेः । एवं क्षायिकपारिणामिकावेको भङ्गः, सिद्धे केवलं सम्यक्त्वादि जीवत्वेवः । इत्येवं रीत्या पञ्चदशभेदाः सान्निपातिका भावाः सम्पद्यन्ते एवमन्येऽपि भेदाः सान्निपातिकाना संभवन्ति अत्रेदं बोध्यम् औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिकास्त्रयो भावाः कर्म घातापेक्षया प्रादुर्भवन्ति बहुल रजो वितान विधाते सति सूर्यस्प किरण पुञ्जोप्तत्तिवत् स तावद् विधातो द्विविधो भवति स्ववीर्यापेक्षया कर्मणो देशक्षयः सर्वक्षयश्च स्वोपार्जित कर्मोदयात् आत्मनो नारकादि गत्यादयो भावा उत्पद्यन्ते मदिरासेवनजन्यनृत्यादिविकारवत् । मदोदेकान यथा शीलवानपि मानवो हसति रोदिति गायति क्रुध्यति एवं गत्यादिकर्मोद्रेकात् जीवो गतिकषा यादिकं विकारं प्रतिपद्यतेपारिणामिकस्तु स्वाभाविक एव भावो न तु संनिमित्तक इति भावः ॥सूत्र--१५॥ मूलम् “उवओगो दुविहो सागारो अणागारो य । सू.१६ छाया-"उपयोगो द्विविधः साकारः अनाकारश्च । सू. १६ के एक देश का क्षय और सर्वक्षय । तथा अपने द्वारा उपार्जित कर्म के उदय से आत्मा से नरकगति आदि भाव उत्पन्न होते हैं, जैसे मदिरा के नृत्य(नाच) आदि विकार उत्पन्न होते हैं,, रोता है, गाता है, क्रोध करता है, इसी प्रकार गति आदि कर्मों के उद्रेक से जीव गति कषाय आदि विकारों को प्राप्त होता है किन्तु पारिणामिक भाव स्वाभाविक है वह किसी भी निमित्तकारण से नहीं उत्पन्न होता ॥१५॥ मूल सूत्रार्थ- "उवओगो दुविहो सागरो इत्यादि। तत्त्वार्थ दीपिका--पहले कहा गया था कि जीव का लक्षण उपयोग है, अब उपयोग का स्वरूप और भेद बतलाने के लिए कहते हैं-उपयोग दो प्रकार का है—साकारोपयोग और निराकारोपयोग ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति को अर्थात् अपने-अपने विषय की ओर अभिमुख होने को 'योग' कहते हैं । उप अर्थात् जीव का समीपवर्ती योग 'उपयोग' कहलाता है। उपयोग को नित्य सम्बन्ध भी कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि किसी पदार्थ को जानने के लिए जीव का जो व्यापार होता है, वह उपयोग कहलाता है । इसमें जो उपयोग साकार होता है वह ज्ञानोपयोग और जो उपयोग निराआर होता है वह दर्शनोपयोग कहलाता है। इन्द्रियों की प्रणाली से ज्ञान का विषयाकार परिणत होने के कारण साकार व्यापार होता है। किन्तु दर्शन विषयाकार परिणत नहीं होता, अतएव वह निराकार या अनाकार कहलाता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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