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________________ तत्त्वार्यसूत्रे छाया-अथ कस्तावत् क्षायोपशमिकः ? द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा- क्षायोपशमिकश्च क्षायोपशमनिष्पन्नश्च अथ- कस्तावत् क्षापोपशमिकः ? चतुर्णा धातिकर्मणां क्षायोपशमेन, तद्यथाज्ञानावरणीयस्य दर्शनावरणीयस्य मोहनीयस्य अन्तरायस्य क्षयोपशमेन न एष क्षयोपशमिकः अथ कस्तावत् क्षयोपशमनिष्पन्नः ? अनेक विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा क्षयोपशमिता आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धिः यावत् क्षायोपशमिता मनः पर्यवज्ञानलब्धि क्षयोपशमिता मत्यज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिता श्रुताज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिता विभङ्गज्ञानलब्धिः क्षयोपशमिता चक्षुर्दर्शनलब्धिः अचक्षुर्दर्शनलब्धि अवधिदर्शनलब्धिः एवं सम्यग्दर्शनलब्धिः मिथ्यादर्शनलब्धिः सम्यगूमिथ्यादर्शनलब्धिः क्षयोपशमितासामयिकचारित्रलब्धि एवं छेदोपस्थानलब्धिः परिहार विशुद्धिकलब्धिः, सूक्ष्म संपराय चारित्रलब्धिः, एवं चारित्राचारित्रलब्धिः क्षयोपशमितादानलब्धिः भोगलब्धिः उपभोगलब्धिः क्षयोपशमिता वीर्यलब्धिः एवं पण्डितवीर्यलब्धिः बालवीर्यलब्धि; बालपण्डितवीर्यलब्धिः क्षयोपशमिताश्रोत्रेन्द्रियलब्धिः यावत् क्षयोपशमितास्पर्शनेन्द्रियलब्धिः क्षयोपशमितः आत्माङ्गधरः एवं श्रुताङ्गधरः स्थानाङ्गधरः समवायाङ्गधरः विवाह प्रज्ञप्तिधरः ज्ञाताधर्मकथाङ्गधरः उपासकदशाङ्गधरः अन्तकृतदशाङ्गधरः अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गधरः अन्तकृतदशाङ्गधरः अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गधरः प्रश्नव्याकरणधरः विपाकश्रुतधरः श्रयोपशमितः दृष्टिवादधरः क्षयोपशमितो नवपूर्वीक्षयोपशमितः यावत् चतुर्दशपूर्वीक्षयोपशमितः गणीक्षयोपशमिकोवाचकः स एष क्षयोपशमनिष्पन्न स एष क्षायोपशमिकः इति । क्षायोपशमिक आचारांगधर, इसी प्रकार सूत्रकृतांगधर, स्थानांगधर, समवायांगधर, विवाहप्रज्ञप्तिधर, ज्ञातधर्मकथाधर, उपासकदशाधर, अन्तकृदशाधर, अनुत्तरौपपातिकदशाधर, प्रश्नव्याकरणधर, विपाकश्रुतधर, क्षायोपशमिक दृष्टिवादधर, क्षयोपशमिक नवर्वी, क्षायोपशमिक यावत् चतुर्दशपूर्वी, क्षायोपशमिक गणी क्षायोपनामिक वाचक, यह सब क्षायोपशमनिष्पन्न के भेद कहे गये हैं। पारिणामिकभाव तीन प्रकार का होता है—जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीव का भाव अर्थात् जीवपन, जीवत्व कहलाता है अर्थात् असंख्यात प्रदेशमय चैतन्य । जो जीव सिद्धिग. मन के योग्य हो वह भव्य और जो सिद्धि गमन के योग्य न हो वह अभव्य कहलाता है इनके भाव को भव्यत्व और अभव्यत्व कहा गया हैं । जीव के ये तीनों भाव स्वभाविक ही हैं, कर्मकृत नहीं अर्थात् किसी कर्म के उदय, उपनाम, क्षयया क्षयोपशम वे उत्पन्न नहीं होते। आत्मा अपने स्वभाव से ही जीवत्व, भव्यत्व या अभव्यत्व रूप से परिणतशील होता है। यद्यपि अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तत्व, भोक्तृत्व, गुणवत्व' असर्वगतत्व, अनादिकर्मसन्तानबद्धत्व, प्रदेशवत्व, अरूपित्व, नित्यत्व आदि भी जीव के अनादि पारिणामिक भाव हैं और अनुयोगद्वारसूत्र में, छह भावों के प्रकरण में अन्य बहुत से भेद भी प्रतिपादित किए गए हैं तथा पि यहाँ संक्षेप में ही पारिणामिकभाव का निरूपण किया गया है, अतएव इन तीन भेदों में ही उन सबका समावेश हो जाता है । अनुयोगद्वार में कहा है શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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