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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ५३ केवलदर्शनावरणः अनावरणः निरावरणः दर्शनावरणीयकर्मविप्रमुक्तः क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासाता वेदनीयः अवेदनः निर्वेदनः क्षीणवेदनः शुभाशुभवेदनीयकर्मविप्रभुक्तः क्षीणक्रोधो यावत् क्षीणलोभ क्षीणाप्रेमाक्षीणदोषः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः अमोहः निर्मोहः क्षीणमोहः, मोहनीयकर्मविप्रमुक्तः क्षीणनैरयिकायुष्कः क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्कः क्षीणमनुष्यायुष्कः क्षीणदेवायुष्कः, अनायुष्कः, निरायुष्कः क्षीणायुष्कः आयुःकर्मविप्रमुक्तः गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गबन्धनसंधातनसंहनन संस्थानानेक शरीर वृन्दसंधातविप्रमुक्त क्षीणशुभनामा क्षीणाशुभनामा अनामा निर्नामा क्षीणनामा शुभाशुभनामकर्म विप्रमुक्तः क्षीणोच्चगोत्रः क्षीणनीच गोत्रः अगोत्रः निगोत्रः क्षीणगोत्र: उच्चनीचगोत्रकर्म विप्रमुक्तः क्षीणदानातंरायः । क्षीणलाभान्तरायः क्षीणभोगान्तरायः क्षीणोपभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः अनन्तरायो निरन्तरायः क्षीणान्तरायः अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः सिद्धो बुद्धो मुक्तः परिनिर्वृत्त: अन्तकृतः सर्वदुःखाहीणः स एष क्षयनिष्पन्नः स एष क्षायिक इति क्षायोपशमिकस्य भावस्य पूर्वोक्त स्वरूपस्याष्टादशभेदाः सन्ति तद्यथा----चतुर्भेदं ज्ञानम् ४ मतिश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानभेदात् त्रिभेदमज्ञानम् ३ मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदात् त्रिभेदं दर्शनम् ३ चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनभेदात् पञ्चभेदालब्धयः ५ दानलाभभोगोपभोगवीयलब्धि भेदात् सम्यक्त्वम् १ चारित्रं ? संयमासंयमश्च १ इत्येते मिलिताः सन्तोऽ ष्टादशभेदाः क्षायोपशमिका भावा भवन्तीति भावः तत्र मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानचतुष्टयावरणीय क्षीणदानान्तराय, क्षीणलाभान्तराय, क्षीणभोगान्तराय, क्षीणोपभोगान्तराय, क्षीणवीयन्तिराय, अनन्तराय, निरन्तराय, क्षीणान्तराय, अनन्तरायकर्मविप्रयुक्त, सिंह, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त, अन्तकृत, सर्वदुःखग्रहीण, यह सब क्षयनिष्पन्न है। पूर्वकथित स्वरूप वाले क्षायोपनामिक भाव के अठारह भेद हैं, यथा—चार प्रकार का ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान,श्रुतज्ञा न अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान, तीन प्रकार का अज्ञान मत्यज्ञान, श्रुतज्ञान और बिभागज्ञान तीन प्रकार का दर्शन-चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन पाँच प्रकार की लब्धियाँ-दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि सम्यक्त्व, चरित्र और संयमासंयम । ये सब मिलकर क्षायोपना मियभा के अठारह भेद होते हैं । मति झानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्मों के स्पर्द्धक सर्वधाती भी होते हैं और देशधाती भी होते हैं । जब समस्त सर्वघाती स्पर्द्धक विनष्ट हो जाते हैं और आत्मा की विशुद्धि के कारण समय समय में देशघाती भी स्पर्द्धकों के अनन्त भाग क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और उनके भाग उपशान्त हो जाते हैं, तब सम्यग्दर्शन के साहचर्य से जीव ज्ञानी होता है। क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति ज्ञान आदि जब मिथ्यात्व के साथ होते हैं तब अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान कहलाते हैं । यहाँ 'अज्ञात' शब्द से कुत्सित अर्थ में नञ् समास किया गया શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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