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________________ ६७४ wamAnanamAMWAwar तत्यार्थसूत्रे प्रतर लोकपूरणसमुद्घातकाले च मानुषोत्तरशैलबहिर्भागेऽपि मनुष्या भवन्तीति व्यपदिश्यते । तथाच--जम्बूद्वीप-धातकीखण्डद्वीप-पुष्करार्धभागात्मकसार्धद्वयद्वीपे द्वयोश्च समुद्रयोर्लवण-- कालोदयोर्मध्ये च मनुष्याः सन्तीत्यवधेयम् अतएव--पुष्करार्धे एव भरतादिक्षेत्रहिमवदादिपर्वतानां द्वयोर्द्वयो रस्तित्वमुक्तम् , न तु--सम्पूर्णपुष्करद्वीपे इतिभावः तथाच-मनुष्यलोकस्तावन्मनुष्योत्तरपर्वतात्प्रागेव जम्बूद्वीपो--धातकीखण्डः-पुष्करार्धद्वीपश्चेत्येवं सार्धद्वीपद्वयम् , लवणसमुद्रः कालोदसमुद्रश्चेत्येवं समुद्रद्वयम् , ___ पञ्च मन्दरपर्वताः भरतादिसप्तक्षेत्राणां पञ्चभिर्गुणितत्वे पञ्चत्रिंशत् क्षेत्राणि, क्षुद्रहिवदादिवर्षघरपर्वतानां षण्णां पञ्चभिर्गुणितत्वे त्रिंशत् संख्यका वर्षधरपर्वताः, पञ्चदेवकुरवः, पञ्चोत्तरकुवरः, षष्टयधिकशतसंख्यकाश्चक्रवर्तिविजयाः, पञ्चपञ्चाशदधिकशतद्वयजनपदाः, षट्पञ्चाशद्-अन्तर्वीपाश्चेत्येवं रूपो बोध्यः मानुषोत्तरपर्वतश्च-मनुष्यलोकपरिक्षेपी महानगरप्राकारप्रतीकाशः काञ्चनमयः पुष्करद्वीपार्धविभागकारी एकविंशत्यधिकसप्तदशशतयोजनोच्छ्रितः, त्रिंशदधिकचतुःशतक्रोशञ्चा-ऽधो धरणितलमवगाढः, द्वाविंशत्यधिकसहस्रयोजनानि मूलभागे विस्तीर्णः, चतुर्विशत्यधिकचतुः शतयोजनानि-उपरितनभागे विस्तीर्णो वर्तते इति । मनुष्यो द्विप्रगति की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र से बाहर भी मनुष्य की सत्ता मानी जाती है। इसी प्रकार केवली जब समुद्घात करते हैं तो दंड, कपाट, प्रतर ओर लोकपूरण करके समग्र लोक में अपने आत्मप्रदेशों को फैला लेते हैं । उस समय भी मानुषोत्तर पर्वत से आगे मनुष्य की सत्ता स्वीकार की गई हैं तथा लब्धिधारी भी जा सकते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में, धातकीखण्ड द्वीप में और अर्धपुष्कर द्वीप में अर्थात् अढ़ाई द्वीपों में तथा लवण समुद्र और कालीदधि समुद्र में मनुष्य होते हैं; ऐसा समझना चाहिए । आशय यह है कि पुष्कराध में ही दो-दो भरत आदि क्षेत्रों का तथा हिमवान् आदि पर्वतों का अस्तित्व कहा है; सम्पूर्ण पुष्करद्वीप में नहीं कहा । इस प्रकार मनुष्यलोक मानुषोत्तर पवत से पहले-पहले का ही भाग कहलाता है और उसमें जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्करद्वीप, ये अढ़ाई द्वीप और लवण समुद्र तथा कालोदधि समुद्र नामक दो समुद्र सम्मिलित हैं । उसमें पाँच मन्दर पर्वत हैं, पाँच-पाँच भरतक्षेत्र आदि सातों क्षेत्र होने से ७४५=३५ क्षेत्र हैं, पाँच-पाँच हिमवन्त आदि पर्वत होने के कारण कुल ६४५=३० पर्वत हैं, पाँच देवकुरु हैं, पाँच उत्तरकुरु हैं, १६० चक्रवर्ती विजय हैं, दो सौ पचपन जनपद हैं, और छप्पन अन्तर्वीप हैं। मनुष्यलोक की सीमा निर्धारित करने वाला, महानगर के प्राकार के समान, स्वर्णमय, पुष्करद्वीप के आधे-आधे दो विभाग करने वाला, सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊँचा, चार सौ सवा तोस योजन पृथ्वीतल में फंसा हुआ और ऊपरी भाग में विस्तीर्ण मानुषोत्तर पर्वत है । मनुष्य दो प्रकार के हैं, संमूछिम और गर्भज, संमूर्छिम चौदह प्रकार के हैं उच्चा શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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