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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ. ५ सू. १३
नारकजीवस्वरूपनिरूपणम् ५९३
तेषां च तथाविधशरीराणा मुत्सेधस्तावत् रत्नप्रभायां - सप्तधनूंषि, हस्तत्रयं - षडङ्गुलय: अधोsat द्विगुण - द्विगुण उत्सेधो बोध्यः वेदनाश्च तेषां नारकाणामभ्यन्तरासात वेदनीयकर्मोदये सति अनादिपारिणामिकशीतोष्णबाह्यनिमित्तजनिता - उष्णतीव्र तीब्रतरमाद्या भवन्ति प्रथमे द्वितीये च नरके उष्णवेदना भवन्ति । चतुर्थे च नरके उष्णवेदनावन्तो बहवः शोतवेदनावन्तश्च अल्पा भवन्ति पञ्चमे च नरके उष्णवेदनावन्तोऽल्पाः शीतवेदनावन्तश्च बहवो भवन्ति पष्ठे च नरके शीतवेदना सप्तमे च परमशीत वेदना, भवन्ति । विक्रियास्तु तेषां नारकाणामशुभतरा एव भवति
" शुभं विकरिष्याम" इत्येवं भावनासत्त्वेऽपि ते क्षेत्रकर्मानुभावात् अशुभतरमेव बिकुर्वते, "सुख हेतू नुत्पादयाम" इत्येवं शुभभावनासत्त्वेऽपि क्षेत्रकर्मानुभावात् दुःखहेतूनेवोत्पादयन्ति नरकाश्च - सप्तसु पृथिवीषु वर्तमानाः - रत्नप्रभादिभूमिक्रमेणा ऽधोऽधो निर्माणतो -ऽशुभतरा भयङ्कराःसन्ति, यथा-रत्नप्रभायाम शुभानरकाः, तदपेक्षया - शर्कराप्रभायामशुभतराः, ततोऽप्यशुभताराः वालुकाप्रभायाम्, तदपेक्षयाऽपि अशुभतराः पङ्कप्रभायाम् ततोऽप्यशुभतमाः धूमप्रभायाम्, तदपेक्षयाऽपि अशुभतरास्तमः प्रभायाम्, ततोऽप्यशुभतमा नरका स्तमस्तमः प्रभायां पृथिव्यां सन्ति
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भी अत्यन्त अशुभ होते हैं । विकृत आकृति वाले, हुण्ड संस्थान वाले, छेदन - भेदन किये पक्षी के शरीर जैसे दुर्दर्शन होते हैं । उनके शरीरों की ऊँचाई रत्नप्रभा पृथ्वी में सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल की होती है। इसके पश्चात् प्रत्येक पृथ्वी में दुगुनी - दुगुनी लम्बाई बढ़ती गई है ।
नारक जीवों के असातावेदनीय कर्म का उदय होता है। उनकी अशुभतर वेदना का आभ्यन्तर कारण यही असातावेदनीय है और बाह्य कारण अनादि परिणामिक शीत, उष्ण आदि हैं जो अत्यन्त ही तीव्र होते हैं ।
पहली दूसरी और तीसरी नरक में उष्ण वेदना होती है । चौथी में उष्ण वेदना वाले बहुत और शीत वेदना वाले थोडे होते हैं। पांचवीं में उष्ण वेदना वाले थोड़े और शीत वेदना वाले बहुत होते हैं। छठी में शीतवेदना और सातवी में परमशीत वेदना होती है । ( जीवा ० ३ प्रति उद्दे, २ में) है ।
नारक जीवों की अशुभतर विक्रिया इस प्रकार होती है- 'अच्छी विक्रिया करे' इस प्रकार की भावना होने पर भी क्षेत्र और कर्म के प्रभाव से वे अशुभतर विक्रिया ही किया करते हैं । वे चाहते तो हैं सुख के हेतुओं को उत्पन्न करना, मगर क्षेत्र और कर्म के प्रभाव से दुःख के हेतुओं को ही उत्पन्न करते हैं ।
सातों पृथिवियों में विद्यमान नरक नीचे-नीचे अनुक्रम से अधिकाधिक अशुभ होते हैं, भयंकर होते हैं । जैसे - रत्नप्रभा में अत्यन्त अशुभ हैं तो शर्कराप्रभाः में उससे भी अधिक अशुभ हैं और वालुकाप्रभा में उससे भी अधिक अशुभ हैं। पंकप्रभा में उससे भी अधिक
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧