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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. १३ नारकजीवस्वरूपनिरूपणम् ५९१ अनादि पारिणामिकशीतोष्ण बाह्यनिमित्तोत्पादिकाः सुतीबा वेदना येषां येषु ते नित्याशुभतरवेदनाः तत्र-सप्तस्वपि नरकभूमिषु दशविधाः क्षेत्रवेदना भवन्ति, तद्यथा-अनन्तक्षुधा-१ अनन्ततृषा-२ अनन्तशीतम्-अनन्तोष्णम्-अनन्तपरवशता-अनन्तदाहः-६ अनन्तकण्डूया-७ अनन्तभयम्-८ अनन्तशोकः-९ अनन्तजरा च ! ___ एवं-नित्याशुभतरविक्रियाः-नित्यं प्रतिक्षणम् अशुभतरा विक्रियाः येषां-येषु च ते नित्याशुभतरबिक्रियाः, ते खलु-नारका जीयाः आकालिकप्रयत्ना अपि, उत्तरवैक्रियं शरीर रूपवत्तेच्छया रचयन्तोऽपि क्षेत्रकर्माऽनुभावाद्, विरूपतरमेवा-ऽऽविष्कुर्वन्ति-विदूषकादिवत् इति भावः ॥१३॥ तस्वार्थनियुक्ति:-पूर्व रत्नप्रभादिसप्तभूमिषु क्रमशस्त्रिंशत्-पञ्चविंशति-पञ्चदशदश-त्रिलक्ष पञ्चोनैकलक्षपञ्चसंख्यका नरकाः प्ररूपिताः सम्प्रति-तेषु नरकेषु भवानां नारकजीवानां स्वरूपादीनि प्ररूपयितुमाह--"नारगा णिच्चा-” इत्यादि । नारकाः- पूर्वोक्तलक्षणेषु नरकेषु भवाः निरयवासिनो जीवाः नित्याशुभतरलेश्यापरिणामशरीर-वेदना-विक्रिया भवन्ति नित्यं शश्वत्-अशुभतरा:-अतिशयेनाशुभाः लेश्याश्च कृष्णादिलेश्याः, परिणामाश्च-शब्द, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्शादयः, शरीराणि च-भवधारकवैक्रियरूपाणि, ___ उन जीवों को सदैव अशुभतर वेदना होती है । उस अशुभतर वेदना का अन्तरंग कारण तीव्र असातावेदनीय कर्म का उदय और बहिरंग कारण अनादि पारिणामिक शीत और उष्णता आदि हैं। नरकभूमियों में दस प्रकार की क्षेत्रजनित वेदना होती है । वह इस प्रकार है - (१) अनन्त क्षुधा (२) अनन्त तृषा (३) अनन्त शीत (४) अनन्त उष्ण (५) अनन्त परवशता (६) अनन्त दाह (७) अनन्त खुजली (८) अनन्त भय (९) अनन्त शोक और (१०) अनन्त जरा । इसी प्रकार उन नारक जीवों की विक्रिया भी सदैव अशुभतर ही होती है । वे जीव अपना उत्तरवैक्रिय रूप सुन्दर रूप सम्पन्न बनाना चाहते हैं मगर क्षेत्र के और कर्म के प्रभाव से वह विदूषक आदि के समान बड़ा विरूप बनता है ॥१३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्व रत्नप्रभा आदि सात भूमियों में क्रमशः तीस लाख, पचीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पांच नरकों की प्ररूपणा की है। अब उन नरकों में उत्पन्न होने वाले नारक जोबों के स्वरूप आदि की प्ररूपणा करते हैं नरकों में उत्पन्न होने वाले नारक जीव निरन्तर अशुभ तर लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना और विक्रिया वाले होते हैं, यहाँ नित्य का अर्थ है सदैव और अशुभतर का अभिप्राय है । अत्यन्त अशुम-अनिष्ट । कृष्ण आदि लेश्याएँ प्रसिद्ध हैं । परिणाम का अर्थ शब्द, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श समझना चाहिए । शरीर का आशय है भवधारणीय वैक्रिय शरीर । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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