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________________ ners ५९० तत्त्वार्थसूत्रे पूर्वतः कालनामा नरकः, अपरतो महाकालनामा नरकाः, दक्षिणतो रौरवनामा नरकः, उत्तरतोमहारौरनामा नरकः, मध्येचा-ऽप्रतिष्ठाननामनरकेन्द्रको वर्तते । सू० १२ मूलसूत्रम् -णिच्चामुभयरलेस्सा परिणामसरीरवेयणाविक्किया नारगा ॥सूत्र-१३ छाया-नित्या-ऽशुभतरलेश्यापरिणामशरोरवेदनाविक्रिया नारकाः सूत्र-१३ तत्वार्थदीपिका -- पूर्वसूत्रे रत्नप्रभादिसप्तनरकपृथिवीषु यथाक्रमं नरकावासाः प्ररूपिताः सम्प्रति-तेषु नरकेषु वासिनां नारकाणां जीवानां स्वरूपाणि प्ररूपयितुमाह "णिच्चासुभयरलेस्सापरिणामसरीरवेयणाविक्किया नारगा-” इति । नारकाः-पूर्वोक्तनरकेषु भवाः निरयवासिनो नैरयिका नरकाश्च नित्याशुभतरलेश्याः-नित्यम् अभीक्ष्णम् शश्वत्-अशुभतराः ।। तिर्यग्गतिविषयाशुभलेश्याद्यपेक्षयाऽधोऽधः स्वगत्यपेक्षया चाऽतिशयेना-ऽशुभा लेश्याः येषां येषु वा ते नित्याशुभतरशरीरलेश्याः नित्याशुभतरपरिणामाःक्षेत्र विशेषनिमित्तवशादतिदुःखहेतवोऽशुभतराः शब्द-१ वर्ण-२ रस-३ गन्ध-४ स्पर्शाः येषां-येषु वा ते नित्याशुभतरपरिणामाः नित्याशुभसरशरीराः-नित्यमभीक्ष्णमशुभनामकर्मोदयादत्यन्ताशुभतराणि शरीराणि विकृताकृतयो हुण्डसंस्थानानि दुर्दर्शानि येषां येषु च ते नित्याशुभतरशरीराः । __नित्याशुभतरवेदनाः-नित्यमभीक्ष्णं शश्वत्-अशुभतराः-अभ्यन्तरासातावेदनीयोदये सति वास है, दक्षिण में रौरव नामक और उत्तर में महारौरव नामक नारकावास है । इन सब के मध्य में अप्रतिष्ठान नामक प्रधान नारकावास है ॥सूत्र १२॥ सूत्रार्थ-'णिच्चासुभयरलेस्सा' इत्यादि सूत्र १३॥ नारक जीव नित्य ही अत्यन्त अशुभ लेश्या वाले, वेदना वाले और विक्रिया वाले होते हैं । सू. १३ ॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में रत्नप्रभा आदि सात नरकभूमियों में अनुक्रम से नरकावासों की प्ररूपणा की गई, अब उन नरकों में निवास करने वाले नारक जीवों के स्वरूप का कथन करते हैं पूर्वोक्त नरकों में रहने वाले नारक जीवों की लेश्या सदैव अर्थात् निरन्तर अशुभतर ही रहती है । अशुभतर का अभिप्राय यह कि तियेच गति की अपेक्षा अशुभ होती है और स्वगति अर्थात् नरकगति की अपेक्षा भी ऊपर-ऊपर की अपेक्षा से नीचे-नोचे अधिकाधिक अशुभ होती है। वहाँ शब्द, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का परिणमन भी उस क्षेत्र के निमित्त से अत्यन्त अशुभ होता है । वह परिणमन नारक जीवों के घोर दुःख का कारण होता है । अशुभ नामकर्म के उदय से नारकों का शरीर अतीव अशुभ होता है। उनकी आकृति बड़ी ही विकृत होती है, हुंडक संस्थान होता है और देखने में अत्यन्त अरुचिकर होता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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