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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ३९ यथा पयसि पङ्कस्योद् भूतत्वम् , तथाविधकर्मोदये सति जायमानो भावः औदयिको व्यपदिश्यते; एवम् आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुद्भवरूप उपशम उच्यते, यथा कतकादि द्रव्यसंयोमात् जले पङ्कस्याधस्तले स्थितिरूप उपशमो भवति क्षयस्तु कर्मण आत्यन्तिकी निवृत्तिरुच्यते, यथा काचादि पात्रस्थे मेघस्थे वा उदके कर्दमस्यात्यन्ताभावो भवति, एतदुभयात्मकः क्षयोपशमो मिश्र उच्यते यथा कूपतडागादिस्थे उदके पङ्कस्य क्षीणाऽ-क्षीणवृत्तिर्भवति, द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुको भावः परिणामो व्यपदिश्यते, एवञ्च कर्मफलविपाकाविर्भाविलक्षणेनोदयेन निष्पन्नो भाव औदयिकः, कर्मण उपशमः भस्मपटलाच्छन्नाग्निवत् कर्मणोऽनुत्पादावस्था प्रयोजनमस्येति औपशमिको भावः, कर्मणाः क्षयेण निष्पन्नो भावः क्षायिकः, कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां निष्पन्नो भावः क्षायोपशमिको मिश्रः कर्मणः परिणाम एव द्रव्यभाव प्राणावस्थालक्षणः पारिणामिको भावः, औदयिकादिभावसान्निपाते सति जायमानो भावः सान्निपातिक उच्यते तत्रौदयिकादयः पञ्च भावाः जीवस्य कर्मोदयाद्यपेक्षत्वाद नैमित्तका उच्यन्ते, पारिणामिको भावस्तु कर्मोदयानपेक्षत्वात् चैतन्यादिः स्वाभाविक उच्यते, इस प्रकार कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला भाव औदयिक भाव कहलाता है । आत्मा में कर्म की शक्ति का कारणवश अनुभव होना उपशम कहलाता है, जैसे फिटकड़ी आदि द्रव्यों के संयोग से जल में मैल का नीचे जमा रहना-शान्त हो जाना । कर्मों का सर्वथा शान्त हो जाना यह औपशमिक है । जैसे काचादि के पात्र में स्थित या मेघ में स्थित जल में मैल अत्यन्त अभाव होता है । कर्म का सर्वथा नाश होना क्षायिकभाव है। दोनों अवस्थाओं का मिश्रण मिश्र या क्षयोपशम कहलाता है, जैसे कूप या तालाब के जल में मैल का कुछ-कुछ क्षीण हो जाना और कुछ-कुछ क्षीण न होना । वह क्षायोपशमिक भाव है । जो भाव स्वत; रहता है-कर्म के उदय आदि का आक्षेप नहीं रखता, वह पारिणामिक भाव है । इस प्रकार कर्म के फल-विपाक के प्रकट होने रूप उदय से उत्पन्न होने वाला भाव औदयिक है । भस्म से आच्छादित अग्नि के समान कर्म की अनुत्पाद-अवस्था को उपशम कहते हैं । उपशम से उत्पन्न भाव औपशमिक कहलाता है। कर्म के क्षय से निष्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है । कर्म के क्षय और उपशम से होने वाला भाव मिश्रभाव कहलाता है । जो भाव किसी कर्म के उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम से न होकर स्वभाव से ही होता है वह, पारिणामिक भाव है और औदयिक आदि भावों के सम्मिलन से उत्पन्न होने वाला भाव सान्निपातिक कहलाता है। इनमें औदयिक आदि पांच भाव कर्म की अपेक्षा से होते हैं, अतएव वे नैमित्तक हैं, किन्तु पारिणामिक भाव कर्म के उदय आदि से नहीं होता, अतएव वह स्वाभाविक कहलाता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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