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________________ ३८ __ तत्वार्यसूत्रे सिद्धाः २ तीर्थकरसिद्धाः ३ अतीर्थकरसिद्धाः ४ स्वयंबुद्धसिद्धाः, ५ प्रत्येकबुद्धसिद्धाः ६ बुद्धबोधितसिद्धा : ७ स्त्रीलिङ्गसिद्धाः ८ पुरुषलिङ्गसिद्धाः ९ नपुंसकलिङ्गसिद्धाः १०, स्वलिङ्गसिद्धाः ११ अन्यलिङ्गसिद्धाः १२ गृहिलिङ्गसिद्धाः १३ एकसिद्धाः १४, अनेकसिद्धा इति नन्दीसूत्रे उक्तम् - तदर्थश्च तत एव द्रष्टव्याः-तत्र प्राप्ये तीर्थे सिद्धिं प्राप्नोति स तीर्थ सिद्धो व्यपदिश्यते, तथाचोक्तम्"कृत्स्नकर्मक्षयादूर्व निर्वणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वह्निः निरूपादानसंततिरित्यादि ।।सू.१३॥ मूलम--"जीवस्स छब्भावा ओदइयउवस मियखाइयमिस्सपारिणामियसंनिवाइया । छाया-“जीवस्य षड्भावा औदयिकौपशमिक क्षायिकमिश्रपारिणामिकसांनिपातिकाः दीपिका--पूर्व तावत् संसारिमुक्तभेदेन सूक्ष्मबादरत्रसस्थावरसमनस्कामनस्कादि भेदेन च जीवानां निरूपणं कृतं सम्प्रति तेषामेव जीवानां स्वरूपलक्ष्यणमौदयिकादि षड्भावं प्ररूपयितुमाह-"जीवस्स छब्भावा ओदइयउवस मियखाइय मस्सपारिणामियसंनिवाइया" इति जीवस्य बोधात्मकस्य उपयोगवतः षड्भावाः तीर्थकृभिः प्रज्ञप्ताः सन्ति, तद्यथा-औदयिकः१, औपशमिकः२, क्षायिकः३, मिश्रः४ पारिणामिकः ५ सान्निपातिकश्च६, तत्र भवनं भावः जीवस्य भवनलक्षणपरिणतिविशेषो भावः कथ्यते तथा च द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदय उच्यते (४) अतीर्थंकरसिद्ध (५) स्वयं बुद्धसिद्ध (६) प्रत्येकबुद्धासद्ध (७) बुद्धबोधित सिद्ध (८) स्त्रीलिंग, सिद्ध )९) पुरुष लिंग सिद्ध (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध (११) स्वलिंग सिद्ध (१२) अन्यलिंगसिद्ध (१३) गृहस्थलिंग सिद्ध (१४) एकसिद्ध (१५) अनेकसिद्ध । यह भेद नन्दीसूत्र के २१वें सूत्र में कहे हैं। इनका अर्थ वहीं से समझ लेना चाहिए। तीर्थकर के द्वारा तीर्थ की स्थापना हो जाने पर जो सिद्ध होते हैं, वे तीर्थ तीर्थसिद्ध कहलाते हैं। कहा भी है समस्त कर्मों का क्षय होने से जीव ऊपर निर्वाण की ओर जाता है । जैसे ईंधन जल जाने से और नया ईंधन न मिलने से अग्नि निर्वाण को प्राप्त होतीहै ॥१३॥ सूत्रार्थ-'जीवस्स छब्भावा' इत्यादि । जीव के छह भाव होते हैं-औदियक, औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक) पारिणामिक और सान्निपातिक ॥१४॥ तत्त्वार्थदीपिका- पहले संसारी और मुक्त के भेद से तथा सूक्ष्म-बादर, समनस्क -अमनस्क आदि के भेद से जीवों का निरूपण किया गया है । अब उन जीवों के स्वरूपभूत औदयिक आदि छह भेदों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं-बोधमय, उपयोगवान् जीव के छह भाव तीर्थकरों ने कहे हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) औदयिक २) औपशमिक (३) क्षायिक (४) मिश्र (क्षायोंपशमिक) (५) पारिमाणिक और (६) सान्निपातिक । जीव की भवन अर्थात् होने रूप परिणति को भाव कहते हैं । द्रव्य क्षेत्र काल भाव के निमित्त से कर्मों के फल की प्राप्ति होना उदय कहलाता है, जैसे जल में कीचड़ का उभराना । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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