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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ. ५ सू. ९ नीचैकर्मणो बन्धहेतु निरूपणम् ५८१ मम - सर्वोत्तमं कुलमित्येवं कुलाभिमानेन २. बलमदेन अहं सर्वापेक्षया विशिष्टशक्तिशाली' इत्येवं शक्त्यहंकारेण ३. रूपमदेन - सौन्दर्याहङ्कारेण ४ तपोमदेन - ' अहमुग्रतपस्वी' इत्येवं तपस्यादर्पेण ५. श्रुतमदेन, विद्याज्ञानाभिमानेन - ' अहमेव लाभवान्' इत्यभिमानेन ७. ऐश्वर्यमदेन सम्पत्तिदर्पेण ८. एतैरष्टभिः - मदस्थानैः मदकारणैः नीचगोत्रस्य कर्मणो भव । उक्तञ्च–व्याख्याप्रज्ञप्तौ श्री भगवती सूत्रे -८ शतके ९. उद्देश के ' जाइमएणं - कुलमएणं बलमरणं, जाव इस्सरियमणं - णीयागोयकम्मा सरीरजाव पओगवंधे" इति । जातिमदेन-कुलमदेन-बलमदेन यावदैश्वर्यमदेन नीचैर्गोत्रकर्म शरीरयावत्प्रयोग-बन्धः इति । यावत्पदेन—रूपमदेन, तपोमदेन, श्रुतमदेन, लाभमदेन, इति संग्राह्यम् एवञ्च - जातिमदकुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद, लाभमदैश्वर्यमदैः खलु नीचैगोत्रकर्मबन्धो भतीति भावः ॥ सू० ९ ॥ मूलसूत्रम् — दाणादीनं विग्धकरणेणं अंतराइयकम्मं” ॥ सूत्र- १० ॥ छाया दानादीनां बिघ्नकरणेना - ऽन्तरायकर्म - ' ॥ १० ॥ - तत्त्वर्थदीपिका - पूर्वसूत्रे ज्ञानावरणादिद्वयधिकाशीति – प्रकारकपापकर्मसु क्रमप्राप्तस्य नीचैर्गोत्रस्य कर्मणो बन्धहेतवः प्ररूपिताः, सम्प्रति - अन्तिमस्याsन्तरायकर्मणो बन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह – “ दाणादीर्ण” इत्यादि । दानादीनाम् -- दान - लाभ - भोगो--पभोग- वोर्याणाम् वंश सर्वश्रेष्ठ है मैं उत्तम वंशज हूँ, इस प्रकार के कुल सम्बन्धी अहंकार से २ बल मद से मै सबकी अपेक्षा से शक्तिशाली व्यक्ति हूँ, इस प्रकार बल का अहंकम करने से ३, रूपमद से - मेरा रूप सौन्दर्य दिव्य है, इस प्रकार रूपका अहङ्कार करने से ४, तप मदसेमैं उग्रतपस्वी हूँ मेरे "झसे - उग्रतपस्या कौन कर सकता है ? इस प्रकार तप के अहंकार से ५, श्रुत मद से मैं सब आगमों का ज्ञाता हूँ मेरा ज्ञान विशाल है, इस प्रकार श्रुत सम्बन्धी अहंकार से ६, लाभ मद से–लाभ ही लाभ होता है जो बस्तु चाहता हूँ मुझे ऊसी बस्तु का लाभ हो जाता है, इस प्रकार लाभ के अहङ्कार से ७, इसी प्रकार - ऐश्वर्य मदसे-ऐश्वर्य अर्थात् अधिकार पदवी परिवार ऋद्धिआदि संपत्ति मेरे अनुपम और बिशाल है, इस प्रकार ऐश्वर्य सम्बन्धी अहङ्कार करनेसे ८, अर्थात् इन आठ प्रकार के मद - अहंकार से जीव के नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है, इसी विषय में भगवती सूत्र शतक ८ वें के ९ नौवें ऊद्देशे में भगवान् ने ऐसा ही कहा है | सूत्र - ॥ ९ ॥ 'arirati faraकरणेणं' इत्यादि सूत्रार्थ - - दान आदि में विघ्नडालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है || तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्र में ज्ञानावरणीय आदि बयासी प्रकार के पापकर्मों में से क्रमप्राप्त नीच गोत्र कर्म के बन्ध के कारणों का प्ररूपण किया गया, अब अन्तिम कर्म अन्तरायके बन्ध के कारणों का प्ररूपण किया जाता है दान आदि अर्थात् दान लाभ भोग, उपभोग, और वीर्य में विघ्न डालने से बाधा पहुंचाने શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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